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________________ अ०१०/प्र.६ कुन्द का समय/४५५ कुन्दकुन्दान्वय-लेखयुक्त मर्कराताम्रपत्र जाली प्रो० ढाकी का कथन है कि "कुन्दकुन्दाचार्य का नाम किसी प्राचीन शिलालेख में नहीं मिलता। मर्करा-ताम्रपत्र-लेख में उत्कीर्ण संवत् ३८८ शकसंवत् नहीं है, इसलिए उसे ४६६ ई० का नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त शिलालेख-विशेषज्ञों ने उसे जाली बतलाया है।" (Asp. of Jaino., Vol.II, p.190)। निरसन पूर्णतः कृत्रिम नहीं, कुन्दकुन्दान्वय-उल्लेख प्राचीन पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि मर्कराताम्रपत्र अंशतः कृत्रिम है, पूर्णतः नहीं। उसमें महाराज अविनीत या उसके मन्त्री के द्वारा शक सं० ३८८ (४६६ ई०) में तळवननगर के श्रीविजय-जिनालय के लिए कुन्दकुन्दान्वय के चन्दणन्दि-भटार को बदणेगुप्पे ग्राम दिये जाने का उल्लेख वास्तविक है। अतः ४६६ ई० के ताम्रपत्रलेख में कुन्दकुन्दान्वय का वर्णन होने से कुन्दकुन्द का स्थितिकाल उससे बहुत पहले सिद्ध होता है। फलस्वरूप प्रो० ढाकी की यह स्थापना मिथ्या साबित होती है कि कुन्दकुन्द ईसा की आठवीं शताब्दी में हुए थे। ८वीं शती ई. के राजा शिवमार के लिए प्रवचनसार की रचना आचार्य जयसेन ने 'पंचास्तिकाय' की तात्पर्यवृत्ति के प्रारंभ में लिखा है कि कुन्दकुन्द ने शिवकुमार महाराज के लिए पंचास्तिकाय की रचना की थी। ऐसा ही उन्होंने प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति (२/१०८) में प्रवचनसार की रचना के विषय में भी लिखा है। डॉ० के० बी० पाठक ने इन शिवकुमार महाराज का समीकरण ५वीं शती ई० के कदम्बवंशीय राजा शिवमृगेशवर्मा से तथा प्रो० ए० चक्रवर्ती ने प्रथम शती ई० के पल्लवराज शिवस्कन्द स्वामी (स्कन्द वर्मा प्रथम) से किया है। इस पर टिप्पणी करते हुए प्रो० ढाकी कहते हैं कि ये दोनों लेखक कुन्दकुन्द को प्राचीन मानते थे, इसलिए उन्होंने इसी मनोवृत्ति से प्रेरित होकर कुन्दकुन्द का अस्तित्व प्राचीनकाल में ढूँढ़ने का प्रयत्न किया है। (Asp. of Jaino., Vol.III, p.192)। इस टिप्पणी के द्वारा प्रो० ढाकी ने स्वयं का भी परिचय दे दिया है। उन्होंने ठीक विपरीत मनोवृत्ति से ग्रस्त होकर अर्थात् कुन्दकुन्द को अत्यन्त अर्वाचीन सिद्ध करने की भावना से प्रेरित होकर उनके कालनिर्णय का उपक्रम किया है और ८ वीं शताब्दी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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