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________________ षष्ठ प्रकरण प्रो० ढाकी के मत का निरसन प्रो० एम० ए० ढाकी ने अपना एक लेख, जिसका शीर्षक "The Date of Kundakundācārya" है Aspects of Jainology, vol. III, (P.V. Research Institute, Varanasi-5) में प्रकाशित किया है। उसमें उन्होंने स्वसम्प्रदायी विचारकों के पदचिह्नों पर चलते हुए प्रमाणों पर परदा डालकर अप्रामाणिक अर्थात् कपोलकल्पित हेतुओं के आधार पर कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल निर्धारित करने की चेष्टा की है। प्रो० ढाकी ने कुन्दकुन्द को ८ वीं शताब्दी ई० में वर्तमान सिद्ध करने के लिए पहली मनमानी चेष्टा तो यह की है कि कुन्दकुन्द से परवर्ती आचार्यों को उनसे पूर्ववर्ती बतलाया है, दूसरी यह कि उनके काल में भी मनमाना परिवर्तन किया है। उदाहरणार्थ उमास्वाति का अस्तित्वकाल ३७५-४०० ई०, सिद्धसेन दिवाकर का ५ वीं शताब्दी ई०, पुष्पदन्त और भूतबलि का ५ वीं शती ई० का अन्त एवं ६ वीं शती का आरंभ, समन्तभद्र का ५७५-६२५ ई०, पूज्यपाद देवनन्दी का ६३५-६८५ ई०, भट्ट अकलंक का ७२०-७८० ई०, और आचार्य कुन्दकुन्द का ८ वीं शती ई० का उत्तरार्ध दिखलाया है।१७७ यह सर्वथा अप्रामाणिक है। मैंने पूर्व में उन प्रमाणों और युक्तियों को प्रदर्शित किया है, जिनसे आचार्य गुणधर का अस्तित्व ईसापूर्व द्वितीय शती के उत्तरार्ध में, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध में, कुन्दकुन्द का ईसापूर्व प्रथम शती के उत्तरार्ध एवं ईसोत्तर प्रथम शती के पूर्वार्ध में, उमास्वामी का प्रथमशती के उत्तरार्ध तथा द्वितीय शती के पूर्वार्ध में और पूज्यपाद देवनन्दी का ४५० ई० में सिद्ध होता है। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने समन्तभद्रसाहित्य का गम्भीर अनुशीलन कर उनका अस्तित्वकाल १२०-१८५ ई० निर्धारित किया है। तथा सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन का अस्तित्व छठी शताब्दी ई० एवं भट्ट अकलंकदेव की स्थिति ७ वीं शताब्दी ई० में होने के प्रमाण मिलते हैं। ___ ढाकी जी ने जिन कपोलकल्पित हेतुओं के द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द को ईसा की ८वीं शती में उत्पन्न सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, उनका प्रदर्शन और निरसन नीचे किया जा रहा है। १७७. Aspects of Jainology, vol. II, P.V. Research Institute, Varanasi-5, pp. 187, 191, 193. ( उमास्वाति, सिद्धसेन, समन्तभद्र, पूज्यपाद देवनन्दी, भट्ट अकलंक / पृष्ठ 187, पुष्पदन्त, भूतबलि / पृष्ठ 191, आचार्य कुन्दकुन्द / पृ.193)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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