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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४५१ को तत्त्वार्थसूत्रकार का उत्तरकालीन सिद्ध करने की चेष्टा की है, वह विफल हो जाती है और कुन्दकुन्द निर्विवादरूप से तत्त्वार्थसूत्रकार के पूर्ववर्ती ही ठहरते हैं। ६.४. 'स्यात्' निपात का प्रयोग बौद्धसाहित्य में भी
सप्तभंगीनय में 'स्याद्' निपात का प्रयोग होता है। यह प्रयोग भी बहुत पुराना है। प्राचीन बौद्धसाहित्य में भी इसका प्रयोग हुआ है, जो अनिश्चितता या संशय का सूचक न होकर निश्चितता का द्योतन करता है। इस पर प्रकाश डालते हुए स्व० पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य लिखते हैं
"स्यात् शब्द के प्रयोग से साधारणतया लोगों को संशय, अनिश्चय और संभावना का भ्रम होता है। पर, यह तो भाषा की पुरानी शैली है उस प्रसंग की, जहाँ एक वाद का स्थापन नहीं किया जाता। एकाधिक भेद या विकल्प की सूचना जहाँ करनी होती है, वहाँ 'सिया' (स्यात्) पद का प्रयोग भाषा की विशिष्ट शैली का रूप रहा है, जैसा कि 'मज्झिमनिकाय' के 'महाराहुलोवादसुत्त' के अवतरण से विदित होता है। इसमें तेजोधातु के दोनों सुनिश्चित भेदों की सूचना 'सिया' शब्द देता है,७६ न कि उन भेदों का अनिश्चय, संशय या सम्भावना व्यक्त करता है। इसी तरह 'स्यादस्ति' के साथ लगा हुआ 'स्यात्' शब्द 'अस्ति' की स्थिति को निश्चित अपेक्षा से दृढ़ तो करता ही है, साथ ही साथ अस्ति से भिन्न और भी अनेक धर्म वस्तु में हैं, पर वे विवक्षित न होने से इस समय गौण हैं, इस सापेक्ष स्थिति को भी बताता है।" (जैन दर्शन / पृ.५१९)।
इस सन्दर्भ को उद्धृत करने का अभिप्राय यह दर्शाना है कि यदि स्याद्वादमय सप्तभंगीनय को विकसित ही माना जाय, तो उसके विकास की सम्पूर्ण सामग्री एवं परिस्थितियाँ भगवान् महावीर और गौतम बुद्ध के ही युग में विद्यमान थीं, उत्तरकाल में नहीं, अतः उसे तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकसित मानना किसी भी तरह न्याय्य नहीं है। वह पूर्णतः भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट है। अतः ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उसका उल्लेख होना युक्तिसंगत
है।
१७६. "कतमा च राहुल! तेजोधातु? तेजोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा।" =राहुल तेजोधातु
(अग्नि) क्या है? तेजो धातु भी आन्तर और बाह्य (भेद से दो प्रकार की) हो सकती है। (महाराहुलोवादसुत्त / मज्झिमनिकायपालि / २. मज्झिमपण्णासक / पृ.५८२)।
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