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________________ ४५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ समाधान-"यह कौन कहता है कि परस्परविरोधी और अविरोधी सभी प्रकार के धर्मों का आत्मा में एक साथ रहना संभव है? यदि सभी प्रकार के धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जाय, तो चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धर्मों के भी एक आत्मा में एक साथ रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिए सभी प्रकार के परस्पर-विरोधी धर्म एक आत्मा में रहते हैं, अनेकान्त का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए, अपितु जिस आत्मा में जिन धर्मों का अत्यन्त (सर्वथा) अभाव नहीं है, वे किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत् उस आत्मा में होते हैं, यह अनेकान्त का अभिप्राय है।" अत: जिस विरुद्ध धर्म का वस्तु में अत्यन्ताभाव होता है, वह सद्रूप या अस्तिरूप से अनेकान्त का अंग नहीं होता, अपितु असद्रूप या नास्तिरूप से (अनेकान्त का अंग) होता है। जैसे आत्मा चैतन्यरूप से सत् है और अचैतन्यरूप ( पुद्गलादिरूप ) से असत्। इसी प्रकार अग्नि उष्णरूप से सत् है और शीतरूप से असत्। अतः अग्नि में उष्ण और शीत धर्म युगपत् नहीं रह सकते। इसी कारण तो उसमें सत्त्व और असत्त्वरूप दो परस्पर विरुद्ध धर्मों का होना सिद्ध होता है। अग्नि में उष्णत्व का होना सत्त्वधर्म का होना है और शैत्य का न होना असत्त्व धर्म का होना है। अतः मान्य शंकराचार्य जी का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है कि "जैसे एक वस्तु में शीत और उष्ण धर्म एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही सत्त्व-असत्त्वादि धर्म भी एक साथ नहीं रह सकते।" उपर्युक्त युक्तियों और वैदिक-औपनिषदिक दार्शनिकों के वचनों से सिद्ध है कि एक वस्तु में शीत और उष्ण जैसे सहावस्थान-विरोधी परस्परविरुद्ध धर्म तो नहीं रह सकते, किन्तु सत्त्व-असत्त्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि सहावस्थानअविरोधी विरुद्ध धर्मों के रहने में कोई बाधा नहीं है। अतः शीत-उष्ण धर्मों के एक साथ न रहने के दृष्टान्त से सत्त्व-असत्त्वादि का एक साथ रहना असंगत सिद्ध नहीं होता। इसलिए अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं सप्तभंगीनय की ब्रह्मसूत्रकार श्री बादरायण व्यास एवं भाष्यकार आचार्य शंकर द्वारा की गई आलोचना समीचीन नहीं है। किन्तु , मुख्य विषय यहाँ यह है कि उपर्युक्त सिद्धान्तों की आलोचना ५०० से २०० ई० पू० में हुए ब्रह्मसूत्र के कर्ता श्री बादरायण व्यास द्वारा की गई है, इससे सिद्ध होता है कि सप्तभंगीनय ईसा से भी कई सौ वर्ष पहले प्रसिद्ध था। अतः 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने जो उसे तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकसित माना है, वह सर्वथा मिथ्या है, एक बड़ी कपोलकल्पना है। यह भगवतीसूत्र में सप्तभंगीनय के उल्लेख, भगवान् महावीर के युग में सप्तभंगीनय के विकासयोग्य परिस्थितियों के अस्तित्व तथा 'ब्रह्मसूत्र' में सप्तभंगीनय की आलोचना, इन तीन-तीन प्रमाणों से सिद्ध है। अतः उक्त ग्रन्थलेखक ने जो इस कपोलकल्पना के द्वारा कुन्दकुन्द Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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