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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४४९ मीमांसक कुमारिल भट्ट वस्तु की सामान्य-विशेषात्मकता का प्रतिपादन करते हुए मीमांसाश्लोकवार्तिक में कहते हैं-"विशेषरहित सामान्य और सामान्यरहित विशेष शशविषाण के समान असत् है। अर्थात् एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है" निर्विशेषं न सामान्यं भवेच्छशविषाणवत्। सामान्यरहितत्वाच्च विशेषास्तद्वदेव हि॥ उपनिषदों में ब्रह्म के स्वरूप को परस्पर विरुद्ध धर्मों से युक्त बतलाया गया है। यथा क- "अणोरणीयान्महतो महीयान्" = वह ब्रह्म सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है। (कठोपनिषद् /१/२/२०)। __ ख-"तदेजति तन्नजति तद् दूरे तद्वन्तिके" = वह चलता है, नहीं भी चलता है। वह दूर भी है, पास भी है। (ईशावास्योपनिषद्/५)। गक्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तम्" = वह क्षर भी है, अक्षर भी। व्यक्त भी है, अव्यक्त भी। (श्वेताश्वतरोपनिषद् । १/८)। ये सभी परस्परविरुद्ध धर्म सहावस्थान-अविरोधी हैं। किन्तु शीत और उष्ण, चेतनत्व और अचेतनत्व, ब्रह्मचारित्व और अब्रह्मचारित्व इत्यादि परस्परविरुद्ध धर्मों का एक साथ रहना संभव नहीं है, अतः ये सहावस्थान-विरोधी हैं। अनेकान्तवाद वस्तु में सभी प्रकार के विरुद्ध धर्मों का अस्तित्व नहीं मानता, अपितु जो सहावस्थानअविरोधी हैं, उन्हीं की सत्ता स्वीकार करता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए श्री वीरसेन स्वामी कहते हैं "अस्त्वेकस्मिन्नात्मनि भूयसां सहावस्थानं प्रत्यविरुद्धानां सम्भवो नाशेषाणामिति चेत्क एवमाह समस्तानामप्यवस्थितिरिति, चैतन्याचैतन्यभव्याभव्यादिधर्माणामप्यक्रमेणैकात्म-न्यवस्थितिप्रसङ्गात्। किन्तु येषां धर्माणां नात्यन्ताभावो यस्मिन्नात्मनि तत्र कदाचित् क्वचिद-क्रमेण तेषामस्तित्वं प्रतिजानीमहे।" (धवला/ ष.ख./ पु.१/१,११ / पृ.१६८)। अनुवाद शंका-"जिन धर्मों का एक आत्मा में एक साथ रहने में विरोध नहीं है, वे रह सकते हैं, किन्तु सभी धर्मों का एक साथ एक आत्मा में रहना संभव नहीं है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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