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४४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ खदिराङ्गारसदृश दो कुण्डलों के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार आकृति अन्य-अन्य होती जाती है, किन्तु द्रव्य वही का वही रहता है। आकृति के नष्ट होने पर द्रव्य ही अवशिष्ट रहता है।"
बौद्धों के एक दोषान्वेषण का खण्डन करते हुए 'पातञ्जलयोगदर्शन' के भाष्य में श्री व्यास कहते हैं
"अयमदोषः। कस्मात्? एकान्तानभ्युपगमात्। तदेतत् त्रैलोक्यं व्यक्तेरपैति। कस्मात्? नित्यत्वप्रतिषेधात्। अपेतमप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात्।" (विभूतिपाद/सूत्र १३)।
__ अनुवाद-"यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि हम प्रकृति को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य नहीं मानते, अपितु नित्यानित्य मानते हैं। यह त्रैलोक्य ( तदन्तर्गत पदार्थ) बाह्यरूप की अपेक्षा नष्ट होता है, क्योंकि नित्यत्व का प्रतिषेध है। नष्ट होकर भी विद्यमान रहता है, क्योंकि विनाश (अनित्यत्व) का निषेध है।"
इसी तरह वृक्ष में वृक्षत्वरूप से एकत्व और स्कन्ध-शाखा-पत्रादिरूप से अनेकत्व एक साथ उपलब्ध होते हैं। तथा वृक्ष स्कन्ध-शाखा-पत्रादिरूप ही होता है, इस अपेक्षा से स्कन्ध-शाखा पत्रादि का वृक्ष से अभेद है। किन्तु वृक्ष के नाम-लक्षण आदि अन्य हैं और स्कन्ध-शाखा-पत्रादि के नाम-लक्षण आदि अन्य, इस अपेक्षा से उनमें परस्पर भेद भी है। आत्मादि द्रव्यों में अपने चैतन्यादिरूप की सत्ता और पुद्गलादि पर द्रव्यों के जड़रूप की असत्ता सदा पायी जाती है। 'सच्चासत्' (विद्यमान पदार्थ भी अविद्यमान होता है) इस वैशेषिकसूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य शंकर मिश्र लिखते हैं
“यत्र सदेव घटादि असदिति व्यवह्रियते तत्र तादात्म्याभावः प्रतीयते। भवति हि असन्नश्वो गवात्मना, असन् गौरश्वात्मना---।" (वैशेषिकसूत्रोपस्कार । ९ / १/४)।
अर्थात् जहाँ सत् घट भी असत् कहा जाता है, वहाँ तादात्म्याभाव प्रतीत होता है, क्योंकि अश्व गोरूप से असत् होता है, और गो अश्वरूप से।
मीमांसक कुमारिल भट्ट ने भी वस्तु को स्वरूप से सत् और पररूप से असत् प्रतिपादित किया है
स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके। वस्तुनि ज्ञायते कैश्चिद्रूपं किञ्चन कदाचन॥
(मीमांसाश्लोकवार्तिक / आकृतिवाद १०)। पातञ्जलयोगदर्शन के भाष्यकार व्यास ने पदार्थ को सामान्य और विशेष, इन परस्पर विरुद्ध धर्मों से समन्वित बतलाया है-"सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य।" (समाधिपाद/ सूत्र ७)।
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