SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४४७ इति। कुतः? एकस्मिन्नसम्भवात्। न ह्येकस्मिन्धर्मिणि युगपत् सत्त्वादिविरुद्धधर्मसमावेशः सम्भवति शीतोष्णवत्।" (शांकरभाष्य/ ब्रह्मसूत्र २/२/३३ / पृ.२५२-२५३)। अनुवाद-"बौद्धमत का निरसन कर दिया गया। अब निर्वस्त्रों (दिगम्बर जैनों) के मत का निरसन करते हैं। ये लोग सात पदार्थ मानते हैं : जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जर, बन्ध और मोक्ष। संक्षेप में तो दो ही पदार्थ हैं : जीव और अजीव। शेष का इन दोनों में अन्तर्भाव मानते हैं। ये दोनों पदार्थ पंचास्तिकाय नाम से भी वर्णित किये गये हैं : जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय। इन सब के स्वमत-परिकल्पित बहुविध भेद बतलाये गये हैं। इन सब में वे 'सप्तभंगीनय' नामक न्याय का प्रयोग करते हैं, जैसे-स्याद् है। स्याद् नहीं है। स्याद् है और स्याद् नहीं है। स्याद् अवक्तव्य है। स्याद् है और अवक्तव्य भी है। स्याद् नहीं है और अवक्तव्य भी है। स्याद् है, स्याद् नहीं है तथा अवक्तव्य भी है। इसी प्रकार वे एकत्व, नित्यत्व आदि में भी सप्तभंगीनय की योजना करते हैं। यहाँ हमारा कहना है कि यह मान्यता समीचीन नहीं है। क्योंकि जैसे शीत और उष्ण धर्म एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही एक वस्तु में सत्त्व-असत्त्व आदि विरुद्ध धर्म भी युगपत् नहीं रह सकते।" ब्रह्मसूत्रकार एवं भाष्यकार का यह तर्क समीचीन नहीं है, क्योंकि परस्परविरुद्ध धर्म दो प्रकार के होते हैं : १. सहावस्थान-विरोधी (जिनका एकसाथ रहना संभव नहीं है) और २.सहावस्थान-अविरोधी (जिनका एक साथ रहना संभव है)। स्वर्ण में स्वर्णत्व का कभी अभाव न होने से स्वर्णत्वरूप से अर्थात् द्रव्यरूप से नित्यता और आकृति के परिवर्तनशील होने से पर्यायरूप से अनित्यता, ये दोनों परस्परविरुद्ध धर्म एक साथ विद्यमान होते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने कहा है "द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या --- सुवर्णं कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते, पुनरावृत्त-सुवर्णपिण्डः पुनरपरयाकृत्या युक्तः खदिराङ्गारसदृशे कुण्डले भवतः। आकृतिरन्या चान्या भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव। आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते।" (व्याकरणमहाभाष्य / पस्पशाह्निक)। __ अनुवाद-"द्रव्य नित्य है, आकृति अनित्य। सुवर्ण किसी आकार से युक्त होकर पिण्डरूप धारण करता है। पिण्डाकृति को नष्ट कर उसके रुचक (आभूषणविशेष) बनाये जाते हैं। रुचकाकृति का विनाशकर उसे कड़ों का रूप दिया जाता है। कड़ों का आकार मिटाकर उसे स्वस्तिकों के रूप में ढाला जाता है। स्वस्तिकों को गलाकर पुनः स्वर्णपिण्ड बना दिया जाता है और वह पिण्ड पुनः अन्य आकृति से युक्त होकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy