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४४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ ४. क्या लोक अवक्तव्य है? ५. क्या लोक शाश्वत है और अवक्तव्य है? ६. क्या लोक शाश्वत नहीं है और अवक्तव्य है? ७. क्या लोक शाश्वत है, शाश्वत नहीं है और अवक्तव्य है?
सारी जिज्ञासाएँ इन सात जिज्ञासाओं में समाविष्ट हो जाती हैं। उनका अपुनरुक्त परस्पर संयोग करने पर वे सात से अधिक नहीं हो सकतीं। भगवान् महावीर जैसे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के लिए गणित का यह सरल नियम अदृष्ट नहीं रह सकता था। इन सात जिज्ञासाओं का समाधान वे स्याद्वाद के द्वारा करते थे। अतः नय-प्रमाणसप्तभंगी के विकास की परिस्थितियाँ भगवान् महावीर के ही युग में विद्यमान थीं और उसका विकास भगवान् महावीर के द्वारा ही किया गया, यह युक्तितः सिद्ध होता
६.३. बादरायण व्यास द्वारा सप्तभंगी की आलोचना
'ब्रह्मसूत्र' के कर्ता श्री बादरायण व्यास का समय भारतीय और विदेशी विद्वानों ने ५०० ई० पू० से २०० ई० पू० के बीच निर्धारित किया है।७५ श्री व्यास ने ब्रह्मसूत्र में 'नैकस्मिन्नसम्भवात्' (२/२/३३) सूत्र द्वारा जैनदर्शन के अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी की आलोचना की है। सूत्र का अर्थ है 'एक वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्म नहीं रह सकते।' इसका भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्य कहते हैं
"निरस्तः सुगतसमयः। विवसनसमय इदानीं निरस्यते। सप्त चैषां पदार्थाः सम्मता जीवाजीवास्रवसंवरनिर्जरबन्धमोक्षा नाम। संक्षेपतस्तु द्वावेव पदार्थों जीवाजीवाख्यौ। यथायोगं तयोरेवेतरान्तर्भावादिति मन्यन्ते। तयोरिममपरं प्रपञ्चमाचक्षते पञ्चास्तिकाया नाम-जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायो धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकायश्चेति। सर्वेषामप्येषामवान्तरप्रभेदान् बहुविधान् स्वसमयपरिकल्पितान् वर्णयन्ति। सर्वत्र चेमं सप्तभङ्गीनयं नाम न्यायमवतारयन्ति। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादवक्तव्यः, स्यादस्ति च अवक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्चेति। एवमेवैकत्वनित्यत्वादिष्वपीमं सप्तभङ्गीनयं योजयन्ति। अत्राचक्ष्महे-नायमभ्युपगमो युक्त
१७५. "Keith holds that Badarayana can not be dated later than A.D.200. Indian
Scholars are of opinion that the Sūtra was composed in the period from 500 to 200 B.C. Fraser assigns it to 400 B.C. Max Muller says : "Whatever the date of the Bhagavadgita is, and it is a part of the Mahābhārata the age of the vēdanta sūtra and of Bādarāyāņa must have been earlier." Indian Philosophy, Volume II, by S. Radhakrishnan / Page 433.
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