________________
अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४४५ थे कि भगवान् महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी माने जाते थे। वे स्वयं अपने भिक्षुओं से कहते हैं
"एवं वुत्ते भिक्खवे! ते निगण्ठा मं एतदवोचुं-'निगण्ठो, आवुसो, नाटपुत्तो सब्बञ्जू सब्बदस्सावी, अपरिसेसं जाणदस्सनं पटिजानाति-चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं जाणदस्सनं पच्युपट्टितं ति। सो एवमाह-अस्थि खो वो, आवुसो निगण्ठा, पुब्बे व पापकम्मं कतं, तं इमाय कटुकाय दुक्करकारिकाय निज्जीरेथ, यं पनेत्थ एतरहि कायेन संवुता वाचाय संवुता मनसा संवुता तं आयतिं पापकम्मस्स अकरणं। इति पुराणानं कम्मानं तपसा व्यन्तीभावा, नवानं कम्मानं अकरणा, आयतिं अनवस्सवो आयतिं अनवस्सवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया दुक्खक्खओ, दुक्खखया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निजिण्णं भविस्सती ति। तं च पनम्हाकं रुच्चति चेव खमति च, तेन चम्हा अत्तमना' ति।" (निगण्ठानं दुक्खनिज्जरावादो/ देवदहसुत्त/ मज्झिमनिकायपालि/३.उपरिपण्णासक / पृ.१०२६-२७)।
अनुवाद-"भिक्षुओ! मेरे द्वारा ऐसा कहे जाने पर उन निर्ग्रन्थों ने मुझ से कहा-आयुष्मन्! निर्ग्रन्थ ज्ञातिपुत्र सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अपने सम्पूर्ण ज्ञान-दर्शन की प्रतिज्ञा करते हैं कि चलते, खड़े रहते, सोते-जागते सदा मुझे ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। वे (निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र) ऐसा कहते हैं-'आयुष्मन् निर्ग्रन्थो! जो तुम्हारा पूर्वकृत कर्म है, उसे इस क्लेशसाध्य दुष्कर कारिका (तपश्चर्या) से नष्ट कर दो। और जो इस समय तुम काय, वाक्, मन से संवृत हो, यह तुम्हें भविष्य में पाप न करने में सहायक होगा। यों पुराने पापकर्मों के तपस्या द्वारा क्षय हो जाने एवं नये कर्मों के न किये जाने से भविष्य में तुम लोग क्षीणकर्मा हो जाओगे। कर्मों के क्षीण हो जाने से तुम्हारा समग्र दुःख विनष्ट हो जायेगा। दुःखनाश से तुम्हारी सभी वेदनाओं (कुशल-अकुशल अनुभूतियों) का नाश हो जायेगा। यों, वेदनाओं के नाश से तुम्हारा सभी प्रकार का दुःख निर्जीर्ण हो जायेगा। उनका यह कहना हमको रुचता है, अच्छा लगता है, इससे हम सन्तुष्ट हैं।"
इस प्रकार गौतमबुद्ध के समय भगवान् महावीर सर्वज्ञ के रूप में प्रसिद्ध थे और जिज्ञासुओं के मन में उठनेवाली उपर्युक्त जिज्ञासाओं से वे परिचित थे तथा सर्वज्ञ होने के कारण उन्हें यह भी दिखाई देता था कि जिज्ञासाओं के ये चार ही प्रकार नहीं हैं, उनके परस्पर संयोग से कम से कम सात जिज्ञासाएँ हो सकती हैं। यथा
१. क्या लोक शाश्वत है? २. क्या लोक शाश्वत नहीं है? ३. क्या लोक शाश्वत है और शाश्वत नहीं है?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org