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________________ ४४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ गौतमबुद्ध अव्याकृतवादी थे। उन्होंने चार आर्यसत्यों के अलावा और किसी भी दार्शनिक तत्त्व की मीमांसा नहीं की, क्योंकि वे मानते थे कि अन्य किसी भी दार्शनिक तत्त्व के विषय में जानना निर्वाण-प्राप्ति के लिए उपयोगी नहीं है।७३ उनके अव्याकृतवाद में भी चार भंग थे १. क्या मरण के बाद तथागत होते हैं? २. क्या मरण के बाद तथागत नहीं होते? ३. क्या मरण के बाद तथागत होते भी हैं, नहीं भी होते? ४. क्या मरण के बाद तथागत न होते हैं, न नहीं होते।१७४ इस प्रकार भगवान् महावीर का युग सृष्टि और सृष्टिकर्ता आदि के विषय में विभिन्न प्रकार के विधि-निषेधरूप ऊहापोह करने का युग था। उस समय जिज्ञासुओं के मन में प्रायः ऐसे ही प्रश्न उठा करते थे और वे तत्कालीन प्रसिद्ध दार्शनिकों से इनका समाधान पाने की चेष्टा करते थे, जिनमें से कोई उन्हें अनिश्चयवाद या अज्ञानवाद की गोद में ढकेल देता था और कोई अव्याकृतवाद के द्वारा उनकी जिज्ञासाओं को निरर्थक ठहरा देता था। किन्तु भगवान् महावीर स्याद्वादी थे। वे हर प्रश्न का उत्तर 'स्याद्'(कथंचित्) निपात का प्रयोग करते हुए 'हाँ' या 'न' में देते थे, जिससे जिज्ञासु का यथोचित रीति से समाधान हो जाता था। प्रसिद्ध श्वेताम्बर आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि भी लिखते हैं-"जब हम महावीरयुग का अध्ययन करते हैं, तो ज्ञात होता है कि उस युग में इस प्रकार के प्रश्न दर्शनिकों के मस्तिष्क को झकझोर रहे थे और वे यथार्थ समाधान पाने के लिए मूर्धन्य मनीषियों के पास पहुँचते थे।" (भगवतीसूत्र : एक परिशीलन / पृ.६९)। इससे इस सत्य का समर्थन होता है कि सप्तभंगी के विकास की परिस्थितियाँ भगवान् महावीर के ही काल में विद्यमान थीं। इस बात से तो गौतमबुद्ध भी अभिज्ञ ति पि मे नो, तथा ति पि मे नो, अज्ञथा ति पि मे नो, नो ति पि मे नो, नो नो ति पि मे नो। नत्थि परो लोको--- । अत्थि च नत्थि च परो लोको--- । नेवत्थि न नत्थि परो लोको---" संजयवेलट्ठपुत्तवादो/ सामञफलसुत्त / दीघनिकायपालि/ भाग१/ पृ.६४। १७३. चूळमाळुक्यसुत्त/ मज्झिमनिकायपालि/ भा.२/ पृ.५४९। १७४. " 'होति तथागतो परं मरणा' ति मया अब्याकतं, 'न होति तथागतो परं मरणा' ति मया अब्याकतं, 'होति च नं च होति तथागतो परं मरणा' ति मया अब्याकतं, 'नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा' ति मया अब्याकतं।" चूळमाळुक्यसुत्त / मज्झिमनिकायपालि/ २. मज्झिम पण्णासक / पृ.५९४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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