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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४४१ श्वेताम्बर-परम्परा स्मृति में सुरक्षित नहीं रख पायी, केवल गुणस्थानों के नाम ही स्मृति में शेष रहे, इसलिए उनका ही उल्लेख उपर्युक्त ग्रन्थों में हो पाया। और उनका वास्तविक अर्थ विस्मृत हो जाने से उनके साथ नया अर्थ और नये सन्दर्भ जोड़ दिये गये। किन्तु दिगम्बरपरम्परा में जिनोपदिष्ट गुणस्थानसिद्धान्त ज्यों का त्यों आचार्यों की स्मृति में बना रहा, इसलिए षट्खण्डागम में वह अपनी समस्त विशेषताओं और विविध पक्षों के साथ विस्तार से निबद्ध हो गया।
१५. गुणस्थानसिद्धान्त को समझने के लिए 'गुणस्थान' शब्द की व्युत्पत्ति, गुणस्थानों के लक्षण आदि तथ्यों की जानकारी सर्वप्रथम आवश्यक होती है। किन्तु छठी शती ई० के गुणस्थानसिद्धान्त-प्रतिपादक श्वेताम्बरग्रन्थ जीवसमास में इन तथ्यों की जानकारी नहीं दी गयी है। इससे सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरपरम्परा षट्खण्डागम एवं पूज्यपादस्वामी की सर्वार्थसिद्धि-टीका के माध्यम से गुणस्थानसिद्धान्त से सुपरिचित हो गयी थी। इसीलिए जीवसमास के कर्ता ने ग्रन्थ में उपर्युक्त जानकारी देना आवश्यक नहीं समझा।
१६. दिगम्बर विद्वान् पं० हीरालाल जी शास्त्री ने भ्रान्तिवश ईसा की छठी शताब्दी में रचित श्वेताम्बरग्रन्थ जीवसमास को ईसापूर्व चौथी शताब्दी में रचित दिगम्बरग्रन्थ मान लिया और यह घोषित कर दिया कि उसके आधार पर षट्खण्डागम के 'जीवस्थान' खण्ड की रचना हुई है। वस्तुतः षट्खण्डागम का रचनाकाल ईसापूर्व प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध है, जब कि श्वेताम्बरीय जीवसमास ईसा की छठी शती के उत्तरार्ध में रचा गया है। अतः जीवसमास षट्खण्डागम का आधार नहीं हो सकता, अपितु षट्खण्डागम ही जीवसमास का आधार हो सकता है।
१७. इन तथ्यों से सिद्ध होता है कि गुणस्थानसिद्धान्त जिनोपदिष्ट ही है। उसे तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल (श्वेताम्बरमान्यतानुसार ईसा की तीसरी-चौथी शती) के बाद विकसित मानना और इस आधार पर गुणस्थानों की चर्चा करनेवाले कसायपाहुड, षट्खण्डागम, कुन्दकुन्दसाहित्य, मूलाचार आदि दिगम्बरग्रन्थों को तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती मानना और इस कारण आचार्य कुन्दकुन्द को पाँचवीं शती ई० (विक्रम की छठी शती) का बतलाना महामिथ्या मान्यताएँ हैं।
१८. पूर्ववर्णित प्रमाणों से सिद्ध है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे।
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