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________________ ४४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ ६ सप्तभंगीविकासवाद गुणस्थान विकासवादी विद्वान् का दूसरा तर्क यह है कि तत्त्वार्थसूत्र तथा उसके उमास्वातिकृत भाष्य में नयप्रमाण - सप्तभंगी का भी उल्लेख नहीं है, जब कि कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में उसका स्पष्ट शब्दों में वर्णन है । १७१ इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक सप्तभंगी का भी विकास नहीं हुआ था, अतः तत्त्वार्थसूत्र कुन्दकुन्द से पूर्व की रचना है। इसलिए कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्रकार के बाद विक्रम की छठी शती में हुए थे। (जै. ध. या.स./ पृ. २४८ - २४९) निरसन ६.१. भगवतीसूत्र में सातों भंगों की चर्चा यह तर्क भी एकदम कपोलकल्पित है, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र की रचना से लगभग सात सौ वर्ष पूर्व सुधर्मा स्वामी द्वारा प्रणीत ( श्वेताम्बरमतानुसार ) पाँचवें आगमग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ) में न केवल सात भंगों की चर्चा है, अपितु तेईस भंग प्रतिपादित किये गये हैं । सप्तभंगीविकासवादी विद्वान् स्वयं लिखते हैं- " श्वेताम्बर आगम भगवतीसूत्र में षट्प्रदेशी स्कन्ध के सम्बन्ध में जो २३ भंगों की योजना है, वह वचनभेदकृत संख्याओं के कारण है । उसमें भी मूलभंग सात ही हैं । " ( डॉ. सा. म. जै. अभि.ग्र. / पृ. १५८) । उन सात मूलभंगों का निरूपण चतुःप्रदेशी स्कन्ध के प्रसंग में इस प्रकार किया गया है अ०१० / प्र०५ "गोयमा, चउप्पएसिए खंधे १. सिय आया, २. सिय नो आया, ३. सिय अवत्तव्वंआयाति य नो आया तिय, ४ सिय आया य नो आया य, ५. सिय आया य अवत्तव्वं, ६. सिय नो आया य अवत्तव्वं, ७. सिय आया य नो आया य अवत्तव्वं । " (व्याख्याप्रज्ञप्ति / १२ /१०/३० (१)/पृ. २३५ ) । अनुवाद – “गौतम ! चतुःप्रदेशी स्कन्ध १. स्याद् आत्मा है, २. स्याद् नो- आत्मा है, ३. स्याद् अवक्तव्य है - आत्मा और नो- आत्मा उभयरूप होने से, ४. स्याद् आत्मा भी है और नो- आत्मा भी, ५. स्याद् आत्मा है और अवक्तव्य भी है, ६. स्याद् नोआत्मा है और अवक्तव्य भी है, ७. स्याद् आत्मा है, नो-आत्मा है और अवक्तव्य भी है।" १७१. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । खु सत्तभंगं दव्वं Jain Education International आदेस सेण संभवदि ॥ १४ ॥ पञ्चास्तिकाय । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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