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________________ ४४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ ६. तत्त्वार्थसूत्र का सम्पूर्ण विषय-प्रतिपादन गुणस्थान केन्द्रित है और उसकी गुणस्थानकेन्द्रितता सर्वमान्य है। ७. श्वेताम्बर-आगमों में न तो गुणस्थानों की मान्यता है, न गुणश्रेणिनिर्जरा के स्थानों की। 'समवायांग' और 'आचारांगनियुक्ति' में इनका प्रवेश षट्खण्डागम से हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र में भी वहीं से आये हैं। अतः षट्खण्डागम तत्त्वार्थसूत्र से प्राचीन है। ८. तत्त्वार्थसूत्र में जिस कर्मव्यवस्था का प्ररूपण है, उससे चतुर्दश गुणस्थानव्यवस्था स्वतः सिद्ध होती है। अतः वह उतनी ही प्राचीन है, जितनी तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित कर्मव्यवस्था। ९. दिगम्बराचार्य वीरसेन स्वामी ने गुणस्थानों को मोक्ष का सोपान कहा है और श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरि ने 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षपरम्परा' ( मोक्ष का क्रमिक मार्ग) शब्द से अभिहित किया है। अतः गुणस्थानसिद्धान्त उतना ही पुराना है, 'जितना तीर्थंकरप्रणीत मोक्षमार्ग। १०. यदि गुणस्थानसिद्धान्त को ईसा की चौथी शती के बाद विकसित माना जाय, तो इसका यह तात्पर्य होगा कि उसके पहले जीव सम्यग्दृष्टि, श्रावक (देशविरत), विरत आदि अवस्थाओं को प्राप्त नहीं होते थे और ऋषभादि तीर्थंकर मिथ्यादृष्टि एवं व्रतहीन अवस्था में ही मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार यह गुणस्थानविकासवादी मान्यता जैनशासन के 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस प्राणभूत सिद्धान्त पर ही कुठाराघात करती है, अतः यह जैनशासनविरोधी होने से युक्तियुक्त नहीं है। ११. गुणस्थानसिद्धान्त के उद्भव और विकास अथवा ऐतिहासिक विकासक्रम को निर्धारित करनेवाले हेतु अप्रामाणिक हैं, अतः वह ऐतिहासिक विकासक्रम नहीं, अपितु कपोलकल्पित विकासक्रम है। १२. गुणस्थानसिद्धान्त को छद्मस्थ-अनाप्त-प्रणीत मानने पर तत्त्वार्थसूत्र छद्मस्थअनाप्त के उपदेश पर आधारित सिद्ध होगा, क्योंकि उसमें गुणस्थानसिद्धान्त के आधार पर तत्त्वप्ररूपण किया गया है। इस स्थिति में श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र की २२वीं सम्बन्धकारिका में उमास्वाति ने जो तत्त्वार्थसूत्र को अर्हद्वचनैकदेश कहा है, उसके असत्य होने का प्रसंग आयेगा और उमास्वाति अन्यथावादी सिद्ध होंगे। १३. गुणस्थानसिद्धान्त के प्ररूपक श्वेताम्बरीय जीवसमास की मंगलाचरणगाथा में कहा गया है कि चौबीसों जिन चौदह गुणस्थानों के ज्ञाता हैं। १४. श्वेताम्बर-आगम भगवतीसूत्र , प्रज्ञापनासूत्र आदि में जो गुणस्थाननाम-सदृश शब्द मिलते हैं, वे गुणस्थानों के ही नाम हैं। जिनोपदिष्ट गुणस्थानसिद्धान्त को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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