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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४३९ उपलब्ध ही नहीं है। इसके उत्तर में यदि कहा जाय कि उनकी रचना आचार्यपरम्परा से प्राप्त उपदेश के आधार पर हुई है, तो जीवस्थान-खण्ड की रचना भी आचार्यपरम्परा से प्राप्त उपदेश के आधार पर क्यों नहीं हो सकती ? इस तर्क का निरसन किसी भी तर्क से संभव नहीं हैं, अतः सिद्ध होता है कि जीवसमास को जो षट्खण्डागम के जीवस्थान खण्ड का आधारभूत ग्रन्थ माना गया है, वह अप्रामाणिक है।
७. आगे षट्खण्डागम नामक एकादश अध्याय में वे प्रमाण प्रस्तुत किये जायेंगे, जिनसे सिद्ध होता है कि षट्खण्डागम की रचना ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध में हुई थी। और जीवसमास का रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी का उत्तरार्ध है, यह डॉ० सागरमल जी द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों से सिद्ध ही है। अतः रचनाकाल की यह पूर्वापरता इस निर्णय में सन्देह के लिए अवकाश नहीं छोड़ती कि जीवसमास ही षट्खण्डागम के आधार पर रचा गया है, षट्खण्डागम जीवसमास के आधार पर नहीं।
उपसंहार उपर्युक्त विवेचन का सार इस प्रकार है
१. कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय से प्रकट जीव की मिथ्या एवं सम्यक् दर्शनज्ञानचारित्रात्मक अवस्थाएँ गुणस्थान कहलाती हैं। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की ऊपर-ऊपर उठती अवस्थाएँ अर्थात् गुणस्थान मोक्ष की सीढ़ियाँ हैं।
२. 'तत्त्वार्थ' के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उल्लिखित 'सम्यग्दृष्टि', 'श्रावक', 'विरत' आदि अवस्थाएँ लक्षण की दृष्टि से गुणस्थान ही हैं और सम्पूर्ण दिगम्बर एवं श्वेताम्बरसाहित्य में उन्हें गुणस्थान ही कहा गया है। उनका 'आध्यात्मिक विकास की अवस्था' यह नामकरण तो स्वयं तत्त्वार्थसूत्रकार ने नहीं किया। यह पारिभाषिक (अर्थविशेषसूचक) शब्द भी नहीं है, अपितु परिभाषा (अर्थविशेष) ही है, अतः अप्रामाणिक
है।
३. तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानों का उल्लेख न केवल गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में है, अपितु परीषहों, ध्यानभेदों, आहारकशरीर और पञ्च चारित्रभेदों के वर्णन-प्रसंग में भी है।
४. तत्त्वार्थसूत्र में नौ गुणस्थानों का कथन शब्दतः है और पाँच का अर्थतः। इस प्रकार उसमें चौदहों गुणस्थानों का वर्णन है। __५. तत्त्वार्थसूत्र के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उपशमक और क्षपक श्रेणियों का उल्लेख 'अनन्तवियोजक' एवं 'दर्शनमोहक्षपक' संज्ञाओं का प्रयोग तत्त्वार्थसूत्रकार के गुणस्थानसिद्धान्त-विषयक गहन और सूक्ष्म ज्ञान का परिचायक है।
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