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________________ अ०१० / प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४३७ नहीं है, तथापि जैसे तत्त्वार्थसूत्र के " दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः" इत्यादि सूत्र में १६ के स्थान पर १२ कल्पों का निर्देश होने पर भी इन्द्रों की विवक्षा करके और "नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु" इत्यादि सूत्र में अनुदिशों के नाम का निर्देश नहीं होने पर भी उनकी नवसु पद से सूचना मान करके समाधान कर लिया गया है, उसी प्रकार से यहाँ भी समाधान किया जा सकता है।" ( षट्खण्डागम / प्रस्तावना / पृ.९९ / सम्पा.-ब्र. पं० सुमतिबाई शहा / द्वि.सं./ प्रकाशक -आ० शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थमाला / बुढ़ाना, मुजफ्फरनगर उ. प्र. / २००५ ई०) । इसके अतिरिक्त पं० हीरालाल जी शास्त्री ने षट्खण्डागम के उपदेष्टा आचार्य धरसेन का समय वीरनिर्वाण से ६०० वर्ष बाद अर्थात् ई० सन् ७३ के पश्चात् माना है ( वही / द्वि.सं. / प्रस्ता. / पृ. १) और लिखा है कि किसी अज्ञात पूर्वभृत (पूर्वधर) सूरि द्वारा सूत्रित ( रचित ) जीवसमास ग्रन्थ " आचार्यपरम्परा से प्रवहमान होता हुआ धरसेनचार्य को प्राप्त हुआ । उसमें जो कथन स्पष्ट था, उसकी व्याख्या में अधिक बल न देकर जो अप्ररूपित मार्गणाओं का गूढ़ अर्थ था, उसका उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त को विस्तार से विवेचन किया और उन्होंने भी उसी गूढ़ रहस्य को अपनी रचना में स्पष्ट करके कहना या लिखना उचित समझा।" ( वही / द्वि.सं./ प्रस्ता. / पृ.९२ ) । पण्डित जी आगे लिखते हैं-"-- जीवसमास के प्रणेता वस्तुतः श्रुतज्ञान के अंगभूत ११ अंगों और १४ पूर्वों के वेत्ता थे। भले ही वे श्रुतकेवली न हों, पर उन्हें अंग और पूर्वों के बहुभाग का विशिष्ट ज्ञान था, और यही कारण है कि वे अपनी कृति को इतना स्पष्ट और विशद बना सके। यह कृति आचार्यपरम्परा से आती हुई धरसेनाचार्य को प्राप्त हुई, ऐसा मानने मे हमें कोई बाधक कारण दिखाई नहीं देता ।" ( वही / द्वि. स. / प्रस्ता. / पृ.९२ ) । ११ अंगों और १४ पूर्वों के अन्तिम वेत्ता श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। पण्डित जी के अनुसार जीवसमास के कर्त्ता का समय इनके ठीक बाद ही माना जा सकता है। श्रुतकेवली भद्रबाहु ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में हुए थे । अतः जीवसमास के कर्त्ता को भी ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में ही विद्यमान मानना होगा। इस तरह उनका स्थितिकाल, धरसेनाचार्य से लगभग ४०० वर्ष पूर्व घटित होता है । और पण्डित जी का मत है कि उनके द्वारा रचित जीवसमास धरसेनाचार्य को आचार्यपरम्परा से प्राप्त हुआ था । इससे स्पष्ट होता है कि पण्डित जी जीवसमास के कर्त्ता को दिगम्बरपरम्परा का मानकर चले हैं। इसीलिए उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि षट्खण्डागम के 'जीवस्थान' नामक खण्ड की रचना 'जीवसमास' के आधार पर हुई है। यदि उनकी दृष्टि इस तथ्य पर गयी होती कि वह श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है और उसका रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी का उत्तरार्ध है, तो वे ठीक उसी निर्णय पर पहुँचते, जिसे उन्होंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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