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४३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०५
इस प्रकार डॉक्टर सा० ने षट्खण्डागम को जीवसमास के बाद का और छठी शती ई० के उत्तरार्ध के पश्चात् रचित माना है। इसके समर्थन में उन्होंने दिगम्बर विद्वान् पं० हीरालाल जी शास्त्री ( साढूमल - निवासी) के उन वचनों की ओर संकेत किया है, जो उन्होंने ब्र० पं० सुमतिबाई शहा द्वारा सम्पादित एवं १९६५ ई० में श्री श्रुतभाण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति फलटण द्वारा प्रकाशित 'षट्खण्डागम' की प्रस्तावना में निबद्ध किये हैं । प्रस्तावना में उन्होंने 'जीवस्थान का आधार' शीर्षक के अन्तर्गत लिखा है कि षट्खण्डागम के जीवस्थान की रचना 'जीवसमास' नामक ग्रन्थ के आधार पर हुई है। प्रस्तावना का यह अंश डॉ० सागरमल जी ने 'जीवसमास' की भूमिका (पृष्ठ xxxi-x / i ) में उद्धृत किया है।
पण्डित जी की भ्रान्ति- पं० हीरालाल जी शास्त्री ने जिस जीवसमास ग्रन्थ को षट्खण्डागम के जीवस्थान का आधार बतलाया है, वह श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, यह डॉ० सागरमल जी के उपर्युक्त वचनों से ज्ञात होता है । ग्रन्थ के अन्तरंग प्रमाणों से भी यही सिद्ध होता है । यथा
१. जीवसमास की भाषा शौरसेनी न होकर अर्धमागधी है, क्योंकि उसमें नेरइया (गा. ११) तिरिया (गा. २७२), अन्नाण (गा. २६९), केवलनाणी (गा. ८१ ) निग्गंथ (गा. ६८) इत्यादि अर्धमागधी के प्रयोग मिलते हैं। शौरसेनी में क्रमशः णेरइया, तिरिक्खा, अण्णाण, केवलणाणी, णिग्गंथ, ये रूप बनते । दिगम्बरग्रन्थों की भाषा शौरसेनी और क्वचित् महाराष्ट्री है।
२. जीवसमास में छह भाव माने गये हैं- औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक, पारिणामिक और सान्निपातिक (गा. २६५ ) । दिगम्बरपरम्परा में पृथक् सान्निपातिक भाव मान्य नहीं है। दो भावों के संयोग को सान्निातिकभाव कहते हैं, वह मिश्रभाव में ही गर्भित हो जाता है। (तत्त्वार्थराजवार्तिक २ / ७ / २१-२२ / पृ.११४) ।
३. जीवसमास में अनुदिश नाम के नौ कल्पातीत स्वर्ग नहीं माने गये हैं, जब कि दिगम्बरपरम्परा मानती है । षट्खण्डागम में भी मान्य हैं।
पं० हीरालाल जी शास्त्री ने जीवसमास को भ्रान्तिवश दिगम्बरग्रन्थ मान लिया है। इसीलिए दिगम्बरमत के विरुद्ध जो मान्यताएँ उसमें उपलब्ध होती हैं, उनका उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की पद्धति से समाधान करके उसे दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करने की चेष्टा की है । वे लिखते हैं
" यद्यपि जीवसमास की एक बात अवश्य खटकने जैसी है कि उसमें १६ स्वर्गों के स्थान पर १२ स्वर्गों के ही नाम हैं और नव अनुदिशों का भी नाम - निर्देश
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