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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४३५ कि गुणस्थानसिद्धान्त छद्मस्थ या अनाप्त द्वारा विकसित नहीं किया गया, अपितु जिनोपदिष्ट है। ५. डॉ० सागरमल जी ने श्वेताम्बरीय जीवसमास ग्रन्थ को ईसा की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में रचित सिद्ध किया है। इसके समर्थन में उन्होंने दो प्रमुख हेतु प्रस्तुत किये हैं। यथा १. "नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में उस काल तक रचित आगमग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु उनमें कहीं भी जीवसमास का उल्लेख नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि जीवसमास की रचना नन्दीसूत्र के पश्चात् ही हुई होगी। नन्दीसूत्र की रचना लगभग विक्रम की पाँचवीं शती में हुई, अतः जीवसमास पाँचवीं शती के पश्चात् निर्मित हुआ। सातवीं शताब्दी में या उसके पश्चात् रचित ग्रन्थों में जीवसमास का उल्लेख पाया जाता है, अतः जीवसमास की रचना विक्रम संवत् की पाँचवीं शती के पश्चात् और सातवीं शती के पूर्व अर्थात् लगभग छठी शताब्दी में हुई होगी।" (जीवसमास / भूमिका / पृ.I)। २. "--- मतिज्ञान के अन्तर्गत इन्द्रियप्रत्यक्ष (जीवसमास/ गा.१४२) को स्वीकार कर लेने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानचर्चा के प्रसंग में जीवसमास की स्थिति तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती है और नन्दीसूत्र के समान ही है। नन्दीसूत्र का काल पाँचवीं शती है। नन्दीसूत्र में ही सर्वप्रथम मतिज्ञान के एक भेद के रूप में इन्द्रियप्रत्यक्ष को व्यावहारिक प्रत्यक्ष के रूप में मान्य किया गया है।" (वही / पृ.I)। ___तात्पर्य यह कि नन्दीसूत्र से ही जीवसमास में मतिज्ञान का इन्द्रियप्रत्यक्ष नामक भेद ग्रहण किया गया है, अतः जीवसमास की रचना नन्दीसूत्र की रचना के बाद छठी शती ई० में हुई है। किन्तु साध्वी डॉ० दर्शनकलाश्री जी के प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा नामक शोधग्रन्थ के प्राक्कथन में डॉक्टर सा० ने जीवसमास को लगभग पाँचवीं शती का बतलाया है और इसके समर्थन में कोई हेतु प्रस्तुत नहीं किया। (पृष्ठ २)। इससे उनका यह मत मान्य नहीं हो सकता, पूर्वमत ही मानने योग्य है। इसके साथ ही उन्होंने उपर्युक्त प्राक्कथन में लिखा है "श्वेताम्बरपरम्परा में गुणस्थानसिद्धान्त की अवधारणा को स्पष्टतः प्रस्तुत करनेवाला प्रथम ग्रन्थ जीवसमास है। तुलनात्मक आधार पर मैंने और कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भी यह माना है कि 'जीवसमास' ही षट्खण्डागम का आधारभूत ग्रन्थ रहा है।" (पृ.३)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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