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________________ ४३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ श्वेताम्बरपरम्परा गुणस्थानसिद्धान्त से कैसे परिचित हुई, जब कि उस परम्परा में गुणस्थानसिद्धान्त की अवधारणा ही नहीं थी? इसका सयुक्तिक उत्तर यह है कि दिगम्बरपरम्परा में गुणस्थानसिद्धान्त का प्रतिपादक षट्खण्डागम जैसा महान् ग्रन्थ ईसापूर्व प्रथम शती के पूर्वार्ध में रचा जा चुका था। जीवसमास (छठी शती ई०-उत्तरार्ध) की रचना के कतिपय वर्ष पूर्व श्वेताम्बरपरम्परा षट्खण्डागम एवं पूज्यपाद-स्वामीकृत सर्वार्थसिद्धि (५वीं शती ई०) के सम्पर्क में आयी और वह गुणस्थानसिद्धान्त से परिचित हुई। श्वेताम्बराचार्यों में उस पर गहन चिन्तन-मनन हुआ और भगवतीसूत्र आदि श्वेताम्बर-आगमों में गुणस्थानों के नाम-जैसे अनेक नाम उपलब्ध होने से उन्हें विश्वास हो गया कि ये गुणस्थानों के ही नाम हैं और गुणस्थान-सिद्धान्त जिनोपदिष्ट है। फलस्वरूप श्वेताम्बरसंघ में षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि का गहन अध्ययन चलता रहा और वे गुणस्थानसिद्धान्त से सुपरिचित हो गये। अब उन्हें लगा कि गुणस्थान-विषयक कोई ग्रन्थ श्वेताम्बर-परम्परा में भी लिखा जाना चाहिए। इस विचार से प्रेरित होकर किन्हीं आचार्य ने, जिनका नाम विस्मृति के गर्त में चला गया, षट्खण्डागम का अनुसरण कर जीवसमास नामक संक्षिप्त ग्रन्थ की रचना की। और ग्रन्थ को लघुकाय रखने के लिए ऊपर निर्दिष्ट उन समस्त विषयों का उल्लेख छोड़ दिया, जो गुणस्थानसिद्धान्त को हृदयंगम करने के लिए प्राथमिकरूप से आवश्यक होते हैं, क्योंकि षट्खण्डागम एवं सर्वार्थसिद्धि के अध्ययन से श्वेताम्बरसंघ उनसे सुपरिचित हो चुका था। इस प्रकार चूँकि जीवसमास में उन विषयों का निर्देश नहीं है, जो गुणस्थानसिद्धान्त को समझने के लिए प्राथमिक रूप से आवश्यक होते हैं, इससे सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरपरम्परा दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि के माध्यम से गुणस्थानसिद्धान्त से पहले ही परिचित हो चुकी थी। यह इस बात का प्रमाण है कि दिगम्बरजैनसंघ में गुणस्थानसिद्धान्त का ज्ञान आचार्यपरम्परा से चला आ रहा था, अतः वह विकसित नहीं हुआ है, अपितु जिनोपदिष्ट है। ४. गुणस्थानसिद्धान्त का छद्मस्थों द्वारा विकास किये जाने का कोई प्रयोजन भी दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि तीर्थंकरों ने गुणस्थान-आरोहण के बिना ही मोक्ष होने का उपदेश दिया था, तो उसमें अविश्वास करने की क्या आवश्यकता थी, जिससे गुणस्थानसिद्धान्त विकसित किया गया? कोई भी सम्यग्दृष्टि आचार्य जिनवचन में अश्रद्धा नहीं कर सकता। अतः गुणस्थानसिद्धान्त को विकसित करनेवाला एवं उसमें श्रद्धा करने-वाला मिथ्यादृष्टि ही कहा जा सकता है। किन्तु 'जीवसमास' के कर्ता अज्ञात पूर्वधर आचार्य, तत्त्वार्थभाष्यवृत्तिकार श्री सिद्धसेनगणी एवं श्री हरिभद्रसूरि ने गुणस्थानसिद्धान्त में श्रद्धा व्यक्त की है, उसे मान्यता प्रदान की है। इन आचार्यों को कोई भी श्वेताम्बर मुनि एवं श्रावक मिथ्यादृष्टि नहीं कह सकता। इससे सिद्ध है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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