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________________ अ०१० / प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४३३ स्थान में बिखरे हुए कुछ छिद्रयुक्त मोती पूर्व में विद्यमान मोतियों की माला के अस्तित्व का बोध कराते हैं, वैसे ही भगवतीसूत्र आदि श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध गुणस्थानों के नाम पूर्व में गुणस्थान सिद्धान्त के श्रुतिपरम्परा में विद्यमान होने का बोध कराते हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं को अपनी प्राचीन अभिन्न निर्ग्रन्थपरम्परा से गुणस्थानसिद्धान्त का उपदेश प्राप्त हुआ था । उसे श्वेताम्बरपरम्परा स्मृति में सुरक्षित नहीं रख पायी, केवल गुणस्थानों के ही अधिकतर नाम उसकी स्मृति में शेष रहे। उनका अर्थ और स्वरूप भी विस्मृत हो गया । स्मृति में शेष इन्हीं नामों का पाँचवीं शती ई० में वलभी - वाचना के समय नये सन्दर्भों में नये अर्थ के साथ भगवतीसूत्र आदि में उल्लेख कर दिया गया । किन्तु दिगम्बरपरम्परा में गुणस्थानसिद्धान्त ज्यों का त्यों आचार्यों की स्मृति में बना रहा, इसलिए षट्खण्डागम में वह अपनी समस्त विशेषताओं और विभिन्न पक्षों के साथ विस्तार से निबद्ध हो गया । इस प्रकार भगवतीसूत्र आदि श्वेताम्बर - आगमों में उपलब्ध गुणस्थानों के नाम सिद्ध करते हैं कि गुणस्थानसिद्धान्त जिनोपदिष्ट ही है, विकसित नहीं । ३. डॉक्टर सा० ने माना है कि 'श्वेताम्बरपरम्परा में सर्वप्रथम जीवसमास ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का सुव्यवस्थित उल्लेख हुआ है।' इस कथन में थोड़ी ही सत्यता है, क्योंकि उसमें केवल चौदह गुणस्थानों के नाम देकर, चौदह मार्गणाओं एवं आठ अनुयोगद्वारों की अपेक्षा गुणस्थानों का वर्णन किया गया है। इसके अलावा उसमें न तो 'गुणस्थान' शब्द की व्याख्या की गयी है, न चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का प्रतिपाद किया गया है, न ही यह वर्णन है कि विभिन्न गुणस्थानों की उत्पत्ति किन कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपश या क्षय से होती है तथा किस गुणस्थान में किन कर्मों का उदय, उदीरणा, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, उपशम या क्षय होता है, तथा किस गुणस्थान में कौनसा सम्यग्दर्शन, कौनसा संयम, कौनसा चारित्र, कौनसे ध्यान, कौनसे परीषह आदि संभव होते हैं? जिस ग्रन्थ में गुणस्थानसिद्धान्त का प्रथम वार सुव्यवस्थित उल्लेख माना जा रहा हो, अर्थात् छद्मस्थ द्वारा नवीन विकसित किये गये गुणस्थानसिद्धान्त का प्रथम वार प्रस्तुतीकरण माना जा रहा हो, उसमें उपर्युक्त तथ्यों का उल्लेख प्राथमिक रूप से आवश्यक है, क्योंकि उनके बिना गुणस्थान - सिद्धान्त को हृदयंगम करना ही संभव नहीं है। चूँकि उनका उल्लेख नहीं किया गया है, इससे सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरपरम्परा भी गुणस्थानसिद्धान्त से परिचित हो चुकी थी, इसीलिए जीवसमास के कर्त्ता ने उपर्युक्त प्राथमिक विषयों का उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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