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४३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ ही है, विरत का अर्थ विरत ही है, तथापि ये मोक्षमार्गभूत रत्नत्रय के क्रमिक विकास की सूचक अवस्थाओं के रूप में वर्णित नहीं है। ये रत्नत्रय के क्रमिक विकास की अवस्थाएँ हैं, ऐसी अवधारणा भी वहाँ उपलब्ध नहीं है।
कुछ शब्दों का अर्थ भी परिवर्तित हुआ है। जैसे अनुत्तरविमान के देवों को 'उपशान्तमोह' कहा गया है। यहाँ यह शब्द कषाय के अत्यन्त मन्द होने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार 'सयोगी' और 'अयोगी' शब्द केवली के अर्थ में प्रयुक्त न होकर, मन-वचन-काय की क्रिया करनेवाले और न करनेवाले सामान्य जीवों के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। (वही/पृ.३४)। 'प्रमत्तसंयत' और 'अप्रमत्तसंयत' शब्दों में 'प्रमत्त' और 'अप्रमत्त' शब्दों का प्रयोग अयत्नाचारी और यत्नाचारी, इन सामान्य लोकप्रसिद्ध अर्थों में किया गया है, छठे और सातवें गुणस्थानवालों के अर्थ में नहीं। (वही । पृ.४८)।
इसके अतिरिक्त भगवतीसूत्र में गुणस्थानसिद्धान्त के विरुद्ध प्ररूपण भी हुआ है। उदाहरणार्थ, सम्यग्दृष्टि जीव की उत्पत्ति पृथ्वीकायिक में भी बतलायी गयी है। (साध्वी दर्शनकलाश्री / वही / पृ.३२)। ज्ञानावरणादि घाती कर्मों का क्षय करने के बाद अपूर्वकरण में प्रविष्ट होने का कथन किया गया है तथा सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रवाले मुनि को सवेद कहा गया है। (वही / पृ.३३)।
यतः भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध होनेवाली उपर्युक्त तेरह अवस्थाओं के नाम गुणस्थानों के नामों से मिलते-जुलते हैं, इसलिए डॉ० सागरमल जी ने माना है कि वे गुणस्थानसिद्धान्त के बीज हैं। उन्हीं से श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में गुणस्थानसिद्धान्त विकसित हुआ है, जो क्रमशः श्वेताम्बरग्रन्थ जीवसमास और दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम में दृष्टिगोचर होता है। अर्थात् उन्हीं अवस्थाओं में सासादनसम्यग्दृष्टि नाम की अवस्था जोड़कर और उन्हें रत्नत्रय के क्रमिक विकास की अवस्थाएँ मानकर गुणस्थानसिद्धान्त प्रस्तुत कर दिया गया।
यहाँ प्रश्न है कि गुणस्थानों के नामों से अक्षरशः साम्य रखनेवाले, भगवतीसूत्र में उपलब्ध उपर्युक्त तेरह नामों का विकास कैसे हुआ? अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय जैसे अत्यन्त असामान्य पारिभाषिक शब्द किस सिद्धान्त को अभिव्यक्त करने के लिए गढ़े गये? जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं, तो स्पष्ट होता है कि उपर्युक्त नाम वस्तुतः गुणस्थानों के ही नाम हैं। वे गुणस्थानसिद्धान्त के बीज नहीं, अपितु चिह्न हैं, भग्नावशेष हैं। जैसे किसी खुदाई में मिले मंदिर के भग्नावशेष वहाँ पर पूर्व में मंदिर होने की सूचना देते हैं, वैसे ही भगवतीसूत्र में उपलब्ध गुणस्थानों के नाम पूर्व में गुणस्थानसिद्धान्त का अस्तित्व होने की सूचना देते हैं। जैसे किसी
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