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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४३१ दो शुक्लध्यानों की पात्रता का प्रतिपादन किया गया है और सयोगकेवली और अयोगकेवली अवस्थाओं में उत्तरवर्ती दो शुक्लध्यानों की योग्यता का निर्देश है, जिससे सिद्ध होता है कि ये रत्नत्रय के क्रमिक विकास की अवस्थाएँ हैं। अत एव रत्नत्रय के क्रमिक विकास के धर्म (गुण) से अर्थात् गुणस्थानभाव से युक्त होने के कारण ये गुणस्थान हैं। अतः गुणस्थान-भाव या गुणस्थानसिद्धान्त को विकसित मानने पर ये अर्हद्वचन भी छद्मस्थ-अनाप्त-प्रणीत सिद्ध होने से मिथ्या सिद्ध होंगे।
इस तरह गुणस्थानसिद्धान्त को विकसित (छद्मस्थ-अनाप्त-प्रणीत) मानने पर श्रुत के अपलाप और उसके द्वारा उसके अवर्णवाद का प्रसंग आता है। अतः यह मान्य नहीं हो सकता कि गुणस्थानसिद्धान्त जिनोपदिष्ट नहीं, अपितु विकसित है। यतः तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध गुणस्थानों के उपर्युक्त उल्लेख, जिनसे गुणस्थानभाव (रत्नत्रय के क्रमिक विकास का धर्म) स्पष्टतः प्रकट होता है एवं गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र आचार्य उमास्वाति के वचनानुसार अर्हद्वचन के अंश हैं, अतः सिद्ध है कि गुणस्थानसिद्धान्त विकसित नहीं, अपितु जिनोपदिष्ट है।
२. श्वेताम्बरग्रन्थ जीवसमास, जो किसी अज्ञात पूर्वधर द्वारा रचित माना गया है, उसकी मंगलाचरण-गाथा में ही उल्लेख है कि चौबीसों जिन चौदह गुणस्थानों के ज्ञाता हैं। (देखिये, पीछे पा. टि. १६४)। इससे डॉ० सागरमल जी का यह मत असत्य सिद्ध हो जाता है कि गुणस्थानसिद्धान्त जिनोपदिष्ट नहीं, अपितु छद्मस्थों द्वारा विकसित है। इसलिए यदि श्वेताम्बर-आगमों में गुणस्थानसिद्धान्त उपलब्ध नहीं होता और दिगम्बरआगमों में उपलब्ध होता है, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उसका उपदेश भगवान् महावीर से प्राप्त नहीं हुआ, अपितु वह विकसित हुआ है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि जिनोपदिष्ट गुणस्थानसिद्धान्त को श्वेताम्बरपरम्परा स्मृति में सुरक्षित नहीं रख पायी, फलस्वरूप वह इस परम्परा के आगमसाहित्य में संकलित नहीं हो सका। उसकी स्मृति में केवल गुणस्थानों के नाम ही शेष रहे, उनमें अन्तर्निहित गुणस्थानभाव (उनके मोक्षमार्गभूत रत्नत्रय के क्रमिक विकास की अवस्था होने का तथ्य) विस्मृत हो गया। इसीलिए भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि श्वेताम्बर-आगमों में गुणस्थानवाचक अनेक नाम मिलते हैं। जैसे भगवतीसूत्र में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरत, विरताविरत, विरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी (सयोगिकेवली, अयोगिकेवली नहीं) इन १३ नामों का उल्लेख है, केवल सासादनसम्यग्दृष्टि नाम नहीं मिलता। (देखिये, साध्वी दर्शनकलाश्री जी का पूर्वोक्त शोधग्रन्थ / पृ.३४-३५)। ये नाम भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि में गुथस्थानों से भिन्न अर्थ में यत्र-तत्र प्रयुक्त हुए हैं। यद्यपि मिथ्यादृष्टि का अर्थ मिथ्यादृष्टि ही है, सम्यग्दृष्टि का अर्थ सम्यग्दृष्टि ही है, अविरत का अर्थ अविरत
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