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________________ ४३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ है। ये घाती कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय तथा योगप्रवृत्ति एवं योगनिरोध से प्रकट होती हैं और विभिन्न कर्मप्रकृतियों के आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, उपशम एवं क्षय का कारण हैं। साथ ही इनमें से विशिष्ट अवस्थाओं में विशिष्ट सम्यक्त्व, व्रत, तप, चारित्र, ध्यान, परीषह, लेश्या आदि परिणाम संभव होते हैं। इस जिनोपदेश को गुणस्थान-सिद्धान्त कहते हैं। __यदि इस सिद्धान्त को जिनोपदिष्ट न माना जाय, अपितु छद्मस्थ-अनाप्त द्वारा विकसित माना जाय, तो यह सर्वज्ञ के ज्ञान पर आधारित सिद्ध न होने से कपोलकल्पित सिद्ध होगा। इससे अर्हद्वचनैकदेशरूप तत्त्वार्थसूत्र के छद्मस्थ-अनाप्त-वचनैकदेश होने का प्रसंग आयेगा। उदाहरणार्थ, तत्त्वार्थसूत्र (दि.-९/४५, श्वे.- ९/४७) में सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत (प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत), उपशमक (अपूर्वकरणोपशमक, अनिवृत्तिबादरसाम्परायोपशमक एवं सूक्ष्मसाम्परायोपशमक), उपशान्तमोह, क्षपक (अपूर्वकरणक्षपक, अनिवृत्तिबादरसाम्पराय-क्षपक और सूक्ष्मसाम्परायक्षपक), क्षीणमोह एवं जिन (सयोगिजिन, एवं अयोगिजिन), इन अवस्थाओं में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा बतलायी गयी है, जिससे सिद्ध होता है कि ये मोक्षमार्गभूत रत्नत्रय के क्रमिक विकास की अवस्थाएँ हैं, अत एव रत्नत्रय के क्रमिक विकास के धर्म (गुण) से अर्थात् गुणस्थानभाव से युक्त होने के कारण गुणस्थान हैं। यदि गुणस्थानसिद्धान्त (गुणस्थानभाव) को छद्मस्थ-अनाप्त द्वारा कल्पित माना जायेगा, तो तत्त्वार्थसूत्र का यह गुणश्रेणिनिर्जरासिद्धान्त भी छद्मस्थ-अनाप्त द्वारा कल्पित सिद्ध होगा, जिससे उमास्वाति ने जो तत्त्वार्थसूत्र (श्वेताम्बरमान्य) की बाईसवीं सम्बन्धकारिका में तत्त्वार्थसूत्र को अर्हद्वचन का एकदेश कहा है (देखिये पीछे पा. टि. १६३), उसके झूठ होने का प्रसंग आयेगा। इसी प्रकार "तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्" (त.सू. / श्वे. । ९ / ३५) तथा "आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य" (त.सू. / श्वे. / ९ / ३७), इन सूत्रों में वर्णित अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत अवस्थाएँ अपने नाम से ही सूचित करती हैं कि ये रत्नत्रय के क्रमिक विकास की अवस्थाएँ है, इसीलिए प्रथम तीन में उत्तरोत्तर घटते हुए आर्तध्यान की योग्यता और चौथी में आर्तध्यान की अयोग्यता एवं धर्मध्यान की योग्यता बतलायी गयी है। (दिगम्बरमत के अनुसार अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत एवं प्रमत्तसंयत गुणस्थानों में धर्मध्यान की भी योग्यता होती है)। अतः ये रत्नत्रय के क्रमिक विकास के धर्म (गुण) से अर्थात् गुणस्थानभाव से युक्त होने के कारण गुणस्थान हैं। तथा "उपशान्तक्षीणकषाययोश्च" (त.सू./ श्वे./ ९/३८), "शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः" (त.सू./ श्वे./९/३९/), 'परे केवलिनः' (त.सू. । श्वे./९/४०) एवं "तत्त्येककाययोगायोगानाम्" (त.सू. / श्वे./९/४), इन सूत्रों में उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय अवस्थाओं में चतुर्विध धर्मध्यानों के साथ आदि के Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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