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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४२७ ९ वर्ष बाद उनके निर्देशन में माननीया श्वेताम्बर साध्वी डॉ० दर्शनकलाश्री जी ने 'प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा' विषय पर शोधप्रबन्ध लिखा, जिस पर उन्हें ई० सन् २००५ में पी-एच० डी० की उपाधि प्रदान की गयी। उनका शोधप्रबन्ध श्री राजराजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, जयन्तसेन म्यूजियम, मोहनखेड़ा (राजगढ़) धार, म.प्र. द्वारा ई० सन् २००७ में प्रकाशित हुआ है। मेरे इस ग्रन्थ का जब अन्तिम लिपि-संशोधन चल रहा था, तब मुझे उक्त शोधग्रन्थ की प्रति प्राप्त हुई। मैंने उसका अध्ययन किया और पाया कि साध्वी जी भी इस निष्कर्ष पर पहुँची हैं कि यद्यपि श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में गणस्थानों के नाम-सदृश अनेक शब्द मिलते हैं, तथापि उनका गुणस्थानसिद्धान्त से कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में गुणस्थान-सिद्धान्त का अभाव है। साध्वी जी के शोधग्रन्थ के प्राक्कथन में डॉ० सागरमल जी ने अपने गुणस्थानसिद्धान्त-विषयक मत में कुछ परिवर्तन होने की बात स्वीकार की है। उसकी भी समीक्षा मुझे आवश्यक प्रतीत हुई, जिसका समावेश यहाँ कर रहा हूँ। 'प्राक्कथन' में डॉक्टर सा० साध्वी जी के शोधकार्य की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं ___ "सम्भवतः ऐतिहासिक एवं शोधपरक दृष्टि से गुणस्थानसिद्धान्त पर अब तक लिखे गये ग्रन्थों में यह कृति अपना सर्वोपरि स्थान सिद्ध करेगी। यद्यपि इस कृति की रचना में मेरा मार्गदर्शन और सहयोग रहा है, किन्तु साध्वी जी का श्रम भी कम मूल्यवान् नहीं है। उपलब्ध सन्दर्भो को खोज निकालने में उन्होंने जैनसाहित्य का गंभीरता से आलोडन-विलोडन किया। यही नहीं, उनके इस आलोडन और विलोडन के परिणामस्वरूप जो तथ्य सामने आये, उनके आधार पर मुझे भी अपनी पूर्वस्थापनाओं को किंचित् रूप में परिमार्जित करना पड़ा। "मेरी अपनी अवधारणा यही थी कि गुणस्थानसिद्धान्त की प्रतिस्थापना लगभग ५वीं शताब्दी में हुई। यद्यपि एक सुव्यवस्थित गुणस्थान-सिद्धान्त के विकास के रूप में मेरी यह स्थापना आज भी अडिग है। किन्तु मेरी दृष्टि में गुणस्थानसिद्धान्त के विकास का मूल आधार आचारांग-नियुक्ति में, तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्याय में एवं षट्खण्डागम के कृति-अनुयोगद्वार के परिशिष्ट में वर्णित कर्मनिर्जरा की उत्तरोत्तर वर्धमान दस अवस्थाएँ रही हैं। पूर्व में मेरी यही मान्यता थी कि इन दस अवस्थाओं से ही चौदह गुणस्थानों का सिद्धान्त विकसित हुआ है। किन्तु प्रस्तुत शोधकार्य के सन्दर्भ में जब हमने श्वेताम्बरमान्य अर्धमागधी आगमसाहित्य का गम्भीरता से आलोडन-विलोडन किया, तो हमें उसमें भगवतीसूत्र एवं प्रज्ञापनासूत्र में विविध सन्दर्भो में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरत, विरताविरत और विरत, निवृत्ति-बादर, अनिवृत्ति-बादर और सूक्ष्मसम्पराय, मोह-उपशमक एवं मोहक्षपक तथा सयोगी केवली, Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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