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________________ य और ४२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ और अयोगी केवली, ऐसी तेरह अवस्थाओं के उल्लेख मिल गये। यद्यपि ये सब उल्लेख अलग-अलग सन्दर्भो में ही हुए हैं और किसी एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त को प्रस्तुत नहीं करते हैं। इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि प्रथमतः गुणस्थानसिद्धान्त के मूल बीज श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में ही रहे हुए हैं और उन्हीं के आधार पर आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र, षट्खण्डागम आदि में उत्तरोत्तर कर्मनिर्जरा की दस अवस्थाओं का विकास हुआ है। जहाँ तक गुणस्थानसिद्धान्त के सुव्यस्थित उल्लेख का प्रश्न है, श्वेताम्बरपरम्परा में वह सर्वप्रथम जीवसमास, आवश्यकचूर्णि तथा तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धसेनगणी की टीका में ही मिलता है। "इनमें से जीवसमास लगभग पाँचवीं शती का है, शेष दोनों ही ग्रन्थ लगभग सातवीं शताब्दी के हैं। दिगम्बरपरम्परा में गुणस्थानसिद्धान्त-सम्बन्धी सर्वप्रथम उल्लेख षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में मिलता है, ये दोनों ग्रन्थ पाँचवीं शती के उत्तरार्ध या छठवीं शती के प्रारम्भ के हैं। इससे स्पष्ट रूप से यह भी फलित होता है कि गुणस्थानसिद्धान्त व्यवस्थित रूप में पाँचवी शती के बाद ही अस्तित्व में आया है. अन्यथा श्वेताम्बर-आगमसा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में एवं नियुक्ति और भाष्य-साहित्य में कहीं तो कुछ संकेत अश्वय मिलते। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि गुणस्थानसिद्धान्त का प्रारम्भिक व्यवस्थित स्वरूप श्वेताम्बरसाहित्य की अपेक्षा दिगम्बरसाहित्य में पहले पाया जाता है और श्वेताम्बर आचार्यों की अपेक्षा दिगम्बर आचार्यों का अवदान इस सिद्धान्त के विकास में अधिक महत्त्वपूर्ण है। "मेरी दृष्टि में यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य में, वल्लभी-वाचना (५वीं शती) में अर्धमागधी आगमों का जो पाठ निर्धारण हुआ था, उसमें तथा अर्धमागधी आगमों की नियुक्तियों एवं भाष्यों में गुणस्थानसिद्धान्त की कहीं भी कोई व्यवस्थित चर्चा उपलब्ध नहीं है, मात्र कुछ अवस्थाओं के यत्र-तत्र कुछ संकेत हैं। यदि ये आचार्य उससे परिचित होते, तो कहीं न कहीं उसका उल्लेख अवश्य करते। समवायांगसूत्र के १४ वें समवाय की जिस गाथा में जीवस्थान के नाम से तथा आवश्यकनियुक्ति में जो १४ गुणस्थानों के नाम आये हैं, वे गाथाएँ परवर्ती प्रक्षेप हैं और संग्रहणीसूत्र से उद्धृत हैं। क्योंकि आठवीं शती में हरिभद्र ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में उसे संग्रहणी-गाथा कहा है।" (पृ. २-३)। ___ यहाँ नयी बात यह है कि डॉक्टर सा० ने जहाँ अपने उपर्युक्त दो ग्रन्थों में और 'जीवसमास' की भूमिका में गुणस्थान-सिद्धान्त का विकास तत्त्वार्थसूत्र (९/४५) Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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