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________________ ४२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ श्वेताम्बरग्रन्थ जीवसमास में भी, जिसकी भूमिका गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने स्वयं लिखी है, कहा गया है कि चौबीसों तीर्थंकर चौदह गुणस्थानों के ज्ञाता हैं दस चोद्दस य जिणवरे चोइस गुणजाणए नमंसिता। चोद्दस जीवसमासे समासओऽणुक्कमिस्सामि॥१॥ इन प्रमाणों से गुणस्थानविकासवादी विद्वान् की यह मान्यता अप्रामाणिक सिद्ध हो जाती है कि गुणस्थानसिद्धान्त के आधारभूत गुणश्रेणिनिर्जरा के दस स्थानों की कल्पना तत्त्वार्थसूत्रकार ने की है। और इससे यह सिद्ध हो जाता है कि वे जिनोपदेश पर आधारित किसी पूर्वकालीन ग्रन्थ से ग्रहण किये गये हैं। इस प्रकार गुणस्थानसिद्धान्त के उद्भव की ही कल्पना निराधार सिद्ध हो जाती है, तब विकास की कल्पना के लिए कोई अवकाश ढूँढ़े भी नहीं मिलता। अब प्रश्न उठता है कि वह पूर्वकालीन ग्रन्थ कौन है, जिससे तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणश्रेणीनिर्जरा के दस स्थान संगृहीत किये हैं? इस प्रश्न का उत्तर सप्रमाण इसी प्रकरण में पूर्व में दिया जा चुका है। वह यह कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उन्हें दिगम्बरपरम्परा के महान् ग्रन्थ षट्खण्डागम से ग्रहण किया है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि षट्खण्डागम, तत्त्वार्थसूत्र से पूर्वकालीन है, अतः उसे उद्भव-विकासवाली सारिणी में तीसरे क्रम पर रखा जाना अप्रामाणिक है। ७. सारिणी में तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल तीसरी-चौथी शती ई०, कसायपाहुड का चौथी शती ई०, षट्खण्डागम का पाँचवी-छठी शती ई० तथा समयसार-नियमसार आदि का छठी शती ई० से भी पश्चात् का बतलाया गया है, ये काल प्रमाणसिद्ध नहीं है। इसी अध्याय के प्रथम प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि आचार्य कुन्दकुन्द का समय ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी है और तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी। इसी प्रकार कसायपाहुड और षट्खण्डागम क्रमशः ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी एवं ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में रचे गये थे, इसका सप्रमाण प्रतिपादन इन्हीं-नामवाले अध्यायों में द्रष्टव्य है। इस तरह गुणस्थान-सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को निर्धारित करनेवाले सभी हेतु अप्रामाणिक हैं, अतः वह ऐतिहासिक विकासक्रम नहीं, अपितु कपोलकल्पित विकासक्रम है। डॉक्टर सा० के मत में किंचित् परिवर्तन डॉ० सागरमल जी के द्वारा 'जैनधर्म का यापनीयसम्प्रदाय' (ई० सन् १९९६) एवं 'गुणस्थानसिद्धान्त : एक विश्लेषण' (ई० सन् १९९६) ग्रन्थों के लिखे जाने के Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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