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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४२५ में इन श्रेणियों तथा इन पर आरोहण-अवरोहण के उल्लेख का अभाव बतलाया है। इन कारणों से भी विकासक्रम दर्शानेवाली सारिणी अप्रामाणिक है।
५. सारिणी में जो विवरण दिया गया है, उसके अनुसार कुन्दकुन्द-साहित्य में तो गुणस्थानसिद्धान्त-सम्बन्धी विषय अत्यल्प ही उपलब्ध होता है। उसमें न तो गुणस्थानों के सभी नाम हैं (कुल छह नाम हैं), न गुणश्रेणिनिर्जरा की दस अवस्थाएँ वर्णित हैं, न उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी का उल्लेख है और न 'अनन्तवियोजक' और 'दर्शनमोहक्षपक' शब्दों का प्रयोग है।
इसके विपरीत तत्त्वार्थसूत्र में नौ गुणस्थानों के नाम शब्दतः और पाँच के नाम अर्थतः मिलते हैं। उपशमक और क्षपक शब्दों के उल्लेख से उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी का संकेत मिलता है। गुणश्रेणिनिर्जरा के दस स्थानों का निर्देश प्राप्त होता है। अनन्तवियोजक और दर्शनमोहक्षपक की चर्चा उपलब्ध होती है। विभिन्न गुणस्थानों में चतुर्विधध्यान एवं बाईस परीषहों के स्वामित्व का कथन दृष्टिगत होता है। यह विवरण इतना अधिक है कि कुन्दकुन्दसाहित्य की अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानसिद्धान्त अत्यधिक विकसितरूप में उपलब्ध होता है। अतः गुणस्थानविकासवादी विद्वान् के निर्णायकहेतुओं के अनुसार कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्रकार से बहुत पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। फलस्वरूप उन्हें सारिणी में चौथे स्थान पर प्रदर्शित किया जाना दोषपूर्ण है।
६. गुणस्थानसिद्धान्त का उद्भव और विकास दर्शानेवाली सारिणी में तत्त्वार्थसूत्र को पहले स्थान पर रखा गया है और कसायपाहुड , षट्खण्डागम एवं समयसारादि को क्रमशः दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर। इससे ध्वनित होता है कि गुणस्थानसिद्धान्त का उद्भव तत्त्वार्थसूत्र में हुआ है और विकास क्रमशः कसायपाहुड आदि में। इसका तात्पर्य यह है कि गुणस्थानविकासवादी विद्वान् के अनुसार गुणस्थान-सिद्धान्त की आधारभूत सामग्री (गुणश्रेणि-निर्जरा के दस स्थान) तत्त्वार्थसूत्रकार ने कल्पित की है, जिनोपदिष्ट नहीं है। किन्तु इसकी पुष्टि किसी प्रमाण से नहीं होती। इसके विपरीत तत्त्वार्थधिगमसूत्र (श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थसूत्र ) की बाईसवीं सम्बन्धकारिका में कहा गया है कि 'तत्त्वार्थाधिगम' नामक यह ग्रन्थ संग्रहग्रन्थ है और अर्हद्वचन का अंश है
. तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थं सङ्ग्रहं लघुग्रन्थम्।
वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य॥ २२॥ इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित गुणनिर्जरा के दस स्थान तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा कल्पित नहीं हैं, अपितु जिनेन्द्रदेव के उपदेश का अंग हैं और किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थ से संगृहीत किये गये हैं।
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