SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ सावयगुणेहिं जुत्ता पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति ॥ १९६॥ अविरयसम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिदिपयभत्ता ॥ १९७॥ ४८५ ॥ णीसेसमोहविलए खीणकसाए य अंतिमे काले ॥ जं झायदि सजोगिजिणो तं तिदियं सुहुमकिरियं च ॥ जं झायदि अजोगिजिणो णिक्किरियं तं चउत्थं च ॥ ४८७॥ ४८६ ॥ ये उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में 'अविरत', 'देशविरत', 'प्रमत्तसंयत' आदि शब्दों के साथ गुणस्थान शब्द का प्रयोग न होने से उनका गुणस्थान होना असिद्ध नहीं होता । अतः 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग न होने के कारण तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त की अनुपस्थिति मानना प्रत्यक्ष - प्रमाण के विरुद्ध है । इसलिए गुणस्थान का ऐतिहासिक विकासक्रम भी कपोलकल्पित है। अ०१० / प्र०५ ३. आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की पूर्वोद्धृत ११० वीं गाथा में तथा भावपाहुड की पूर्वोक्त ९७वीं गाथा में क्रमशः गुणस्थानों की तेरह एवं चौदह संख्या का उल्लेख किया है और जीवसमास तथा गुणस्थान शब्दों का भी प्रयोग किया है, किन्तु गुणस्थानों के चौदह नामों का कहीं भी उल्लेख नहीं किया। इससे सिद्ध है कि गुणस्थानों के चौदह नाम और 'गुणस्थान' शब्द पूर्व प्रसिद्ध थे, इसीलिए उन्होंने उनका उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा। इस तथ्य से भी गुणस्थानसिद्धान्त का ऐतिहासिक विकासक्रम अनैतिहासिक सिद्ध होता है। ४. गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने गुणस्थान का ऐतिहासिक विकासक्रम (गुणस्थान- सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास) दर्शानेवाली सारणी क्र. १ ( जीवसमास / भूमिका / पृ.VIII) में तत्त्वार्थसूत्र में अप्रमत्तसंयत एवं अनिवृत्तिबादरसाम्पराय गुणस्थानों का अभाव बतलाया है, जब कि आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य (त.सू. - श्वे. ९ / ३७) तथा बादरसम्पराये सर्वे (त.सू. - श्वे. ९ / १२ ) इन सूत्रों में उनका स्पष्ट शब्दों में उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पराय - गुणस्थान का भी तत्त्वार्थसूत्र (९/१० - दि., श्वे.) में उल्लेख है, किन्तु सारिणी में उसका उल्लेख नहीं बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उपशमक और उपशान्तमोह तथा क्षपक और क्षीणमोह इन शब्दों के प्रयोग से ही सिद्ध है कि उपशमकश्रेणी पर आरूढ़ होकर ही जीव उपशान्तमोह गुणस्थान को तथा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर क्षीणमोहगुणस्थान को प्राप्त होता है। तथा उपशान्तमोह को क्षपक और क्षीणमोह से अल्प- गुणश्रेणिनिर्जरावाला बतलाया गया है, इससे स्पष्ट है कि वह 'जिन' अवस्था को प्राप्त नहीं होता अतः उसका उपशमकश्रेणि से उतरना स्वतः सिद्ध है । तथापि उक्त विद्वान् ने तत्त्वार्थसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy