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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४२३ अप्रामाणिक है कि तत्त्वार्थसूत्र, कसायपाहुड, षट्खण्डागम और समयसारादि में क्रमशः अधिक-अधिक गुणस्थानों का निर्देश है, अतः इन ग्रन्थों में गुणस्थानसिद्धान्त का क्रमशः विकास हुआ है, इसलिये ये उत्तरोत्तर अर्वाचीन हैं। 'चारित्तपाहुड' आदि ग्रन्थों के उपर्युक्त उदाहरणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र, कसायपाहुड, षट्खण्डागम और समयसार आदि में जो अल्प या अधिक गुणस्थानों का निर्देश हुआ है, उसका कारण ग्रन्थ में ऐसे प्रतिपाद्य विषय का चुना जाना है, जिसने अल्प या अधिक गुणस्थानों के निर्देश का अवसर दिया है, गुणस्थानसिद्धान्त का अविकसित होना कारण नहीं है। जिन गुणस्थानों के निर्देश का जहाँ अवसर ही नहीं है, वहाँ उनका निर्देश करना अविवेकपूर्ण कार्य है, जिसकी अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्रकार जैसे महान् आचार्यों से नहीं की जा सकती।
२. किसी ग्रन्थ में गुणस्थानभेदों के साथ 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग न होना उनके गुणस्थान न होने का प्रमाण नहीं है, अपितु 'गुणस्थान' शब्द के प्रयोग की आवश्यकता न होने का प्रमाण है, क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत आदि शब्दों के अर्थ से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ये गुणस्थानभेद हैं। आगम में ये शब्द गुणस्थानों के लिए ही प्रसिद्ध हैं, किसी अन्य पदार्थ के लिए नहीं। ये गुणस्थान ही हैं, इसे सिद्ध करने वाले अनेक शास्त्रीय प्रमाण हैं। ये गुणस्थान नहीं हैं, इसे सिद्ध करनेवाला एक भी शास्त्रीय प्रमाण नहीं है। इस प्रकार आगम में गुणस्थानविशेष के रूप में प्रसिद्ध होने के कारण ही 'अविरत', 'देशविरत', 'प्रमत्तसंयत' आदि के साथ गुणस्थान शब्द का प्रयोग आवश्यक नहीं है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्तपाहुड में 'देशविरत' के साथ और बारस अणुवेक्खा में 'अविरतसम्यग्दृष्टि' के साथ 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग नहीं किया।
मूलाचार की निम्नलिखित गाथाओं में भी 'उपशान्तकषाय', 'क्षीणकषाय', 'सयोगिकेवली' और 'अयोगिकेवली' इन गुणस्थानविशेषों के साथ 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग नहीं है
उवसंतो दु पुहुत्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं। खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं ॥ ४०४॥ सुहुमकिरियं सजोगी झायदि झाणं च तदियसुक्कं तु।
जं केवली अजोगी झायदि झाणं समुच्छिण्णं ॥ ४०५ ॥ 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में तो 'गुणस्थान' शब्द का स्वतंत्र रूप से भी कहीं उल्लेख नहीं है और उसकी नीचे उद्धृत गाथाओं में भी श्रावक, प्रमत्तविरत, 'अविरतसम्यग्दृष्टि', 'क्षीणकषाय', 'सयोगिजिन' और 'अयोगिजिन' ये गुणस्थानभेद 'गुणस्थान' शब्द से रहित हैं
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