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________________ ४२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ यथा अ०१० / प्र०५ सव्वविरओ वि भावहि णवयपयत्थाइं सत्त तच्चाई | जीवसमासाइं मुणी चउदसगुण णामाई ॥ ९५ ॥ इसके विपरीत प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय और शेष छह पाहुडों में न तो 'गुणस्थान' शब्द का उल्लेख है, न हि उसके किसी भेद की चर्चा, क्योंकि इन ग्रन्थों में ऐसे किसी भी विषय का प्रतिपादन नहीं किया गया है, जिसमें गुणस्थानविशेष का निर्देश आवश्यक हो । अब क्या इससे यह सिद्ध होता है कि प्रवचनसार आदि की रचना के समय गुणस्थानसिद्धान्त का तनिक भी विकास नहीं हुआ था, चारित्तपाहुड के रचनाकाल में कुछ विकास हो गया था, बारस अणुवेक्खा की रचना के अवसर पर वह कुछ और विकसित हो गया था, समयसार के रचनाकाल में विकसित होते-होते तेरह अंगोंवाला हो गया और भावपाहुड की रचना के समय पूर्ण विकसित होकर चौदह अंगों से समन्वित हो गया? ऐसा कदापि सिद्ध नहीं होता, क्योंकि ऐसा सिद्ध होने पर तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल बारस अणुवेक्खा के पश्चात् एवं समयसार के पूर्व सिद्ध होगा, क्योंकि उसमें बारसअणुवेक्खा से अधिक और समयसार से कम नौ गुणस्थान- भेदों का शब्दतः उल्लेख है। तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा में ( जो कि तत्त्वार्थसूत्र के बाद की कृति है ) गुणश्रेणी - निर्जरा के दस स्थानों का (गा. १०६ - १०८), श्रावक, प्रमत्तविरत (गा. १९६), अविरत - सम्यग्दृष्टि (गा. १९७), क्षीणकषाय (गा. ४८५), सयोगिजिन (गा. ४८६) और अयोगिजिन (गा. ४८७) गुणस्थानों का तथा उपशमक और क्षपक श्रेणियों (गा. ४८४) का वर्णन है, किन्तु अप्रमत्तविरत, सासादन तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि का कथन न होने से केवल ग्यारह गुणस्थानों के उल्लेख के कारण समयसार के पूर्व की और बारस अणुवेक्खा के पश्चात् की तथा तत्त्वार्थसूत्र के समकाल की रचना सिद्ध होगी और जोइन्दुदेवकृत परमात्मप्रकाश एवं योगसार, जो कि छठी शती ई० की रचनाएँ हैं, तत्त्वार्थसूत्र से भी पूर्ववर्ती सिद्ध होंगे, क्योंकि उनमें और भी कम ( प.प्र.१ / ७६, ७७ एवं २ / ४१, योगसार/ १७, ८८) गुणस्थानों का निर्देश है। तथा जिस ग्रन्थ में जिस गुणस्थान का उल्लेख नहीं है, वह गुणस्थान उसके कर्त्ता द्वारा विकसित नहीं माना जायेगा, बल्कि जिस ग्रन्थ में उल्लेख है, उसके कर्त्ता द्वारा विकसित माना जायेगा । अब यदि उसका उल्लेख अनेक ग्रन्थों में है, तो उसे उन सब के द्वारा विकसित मानना होगा और तब वे सब ग्रन्थकार समकालीन सिद्ध होंगे। Jain Education International इन अतर्कसंगत एवं इतिहास - विरुद्ध परिणामों का जनक होने से गुणस्थानविकासवादी विद्वान् का गुणस्थान - विकास के निर्णयार्थ निर्धारित किया गया यह हेतु For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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