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________________ अ०१० / प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४२१ प्रतिपाद्य विषय के अनुसार सभी भेदों का उल्लेख आवश्यक नहीं था। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्तपाहुड में केवल 'देशविरत' गुणस्थान का उल्लेख किया है, क्योंकि वहाँ उन्हें श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन अपेक्षित था दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य। बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य॥ २२॥ बारस अणुवेक्खा में दान के प्रकरण में सम्यग्दृष्टि साधु (प्रमत्तसंयत), सम्यग्दृष्टिश्रावक (देशविरत ) तथा अविरतसम्यग्दृष्टि का कथन आवश्यक था, इसलिए केवल उनका कथन किया गया है उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण संजदो साहू। सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तो हु विण्णेओ॥ १७ ॥ णिद्दिट्ठो जिणसमए अविरदसम्मो जहण्णपत्तो त्ति। सम्मत्तरयणरहिदो अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो॥ १८॥ समयसार में कर्मबन्ध के कर्ता कौन हैं, यह बतलाने के लिए मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिजिन पर्यन्त तेरह गुणस्थानों का निर्देश किया गया है, क्योंकि ये तेरह गुणस्थान ही बन्ध के हेतु हैं। 'अयोगिजिन' नामक चौदहवें गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाता है, अतः वह गुणस्थान बन्ध का हेतु नहीं है, इसलिए उसका उल्लेख नहीं किया गया। देखिए सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा या बोद्धव्वा॥ १०९॥ तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो। मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥ ११०॥ एदे अचेदणा खलु पुग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा। ते जदि करंति कम्म णवि तेसिं वेदगो आदा॥ १११॥ गुणसण्णिदा दु एदे कम्म कुव्वंति पच्चया जम्हा। तम्हा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि ॥ ११२ ॥ स.सा.। किन्तु भावपाहुड में मुनियों के लिए भावलिंग ही मोक्षमार्ग में प्रधान है, यह उपदेश दिया गया है। भावलिंग के लिए सात तत्त्वों, नौ पदार्थों और चौदह गुणस्थानों का चिन्तन आवश्यक है। अतः वहाँ चौदहों गुणस्थानों का निर्देश किया गया है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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