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________________ ४१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ या पट्टावली में उपलब्ध नहीं है, अतः सिद्ध है कि नियुक्तियों के कर्ता उक्त विद्वान् द्वारा ढूँढ़े हुए आर्यभद्र नहीं हैं, अपितु परम्परा से प्रसिद्ध भद्रबाहु-द्वितीय ही हैं। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि गुणस्थान-विकासवादी विद्वान् नियुक्तियों को बोटिकमत की उत्पत्ति के पूर्व रचित सिद्ध करने चले थे, किन्तु बोटिकमत के ही आचार्य द्वारा रचित सिद्ध कर बैठे। ५. यदि आर्यभद्र नियुक्तियों के कर्ता होते, तो वे भी भद्रबाहु-द्वितीय के समान ही प्रसिद्ध होते, तब उनकी रचनाओं को भद्रबाहु की रचनाएँ मान लेने के भ्रम की गुंजाइश न रहती। इसी प्रकार यदि भद्रबाहु-द्वितीय नियुक्तियों के कर्ता न होते तो, वे इतने प्रसिद्ध भी न होते कि लोग आर्यभद्र के स्थान में भद्रबाहु के नाम का प्रयोग करने लगते। ६. लोगों की भूल से गुणधर के स्थान में गणधर, गुणरत्न के स्थान में गुणयत्न और उमास्वाति के स्थान में उमास्वामी तो प्रचलित हो सकता है, किन्तु आर्यभद्र के स्थान में भद्रबाहु प्रचलित नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ केवल किसी मात्रा या अक्षर के परिवर्तन का सवाल नहीं है, अपितु एक पूरे शब्द के परिवर्तन का प्रश्न है, और वह भी 'आर्य' के स्थान में 'बाहु' जैसे सर्वथा विपरीत उच्चारणवाले शब्द का स्थापन और वह भी विरुद्ध स्थान में? इस प्रकार के परिवर्तन का कोई भाषा वैज्ञानिक कारण नहीं है, अतः उपर्युक्त परिवर्तन मानना अयुक्तिसंगत है। इन प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध है कि गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने नियुक्तियों को द्वितीय शताब्दी ई० में रचित सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे नितान्त अप्रामाणिक, अयुक्तिसंगत और हास्यास्पद हैं, अतः मिथ्या हैं। फलस्वरूप यह तथ्य यथावत् स्थित रहता है कि नियुक्तियों के कर्ता छठी शताब्दी ई० में हुए भद्रबाहुद्वितीय ही हैं। अतः यह बात भी निर्विवाद हो जाती है कि आचारांगनियुक्ति में उद्धृत गुणश्रेणिनिर्जराविषयक गाथाएँ भी षट्खण्डागम की ही गाथाएँ हैं। ३.४. मोक्षमार्ग चतुर्दशगुणस्थानों का अविनाभावी . चतुर्दश गुणस्थान मोक्षमार्गभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणाम की उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त अवस्थाएँ हैं। वीरसेन स्वामी ने इन्हें मोक्ष की सीढ़ियाँ कहा है"मोक्षस्य सोपानीभूतानि चतुर्दश गुणस्थानानि।" (धवला / ष.ख./ पु.१/१, १, २२ / पृ.२०१)। तथा श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने इनको 'मोक्ष की परम्परा' (मोक्ष का क्रमिक मार्ग) नाम दिया है। ललितविस्तरा के एक प्रकरण में सिद्धों को परम्परागत (क्रम से सिद्धि को प्राप्त) कहते हुए नमस्कार किया गया है। इस पर कोई प्रतिपक्षी कहता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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