SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४१९ नैकादिसङ्ख्याक्रमतो वित्तप्राप्तिर्नियोगतः। दरिद्रराज्याप्तिसमा तद्वन्मुक्तिः क्वचिन्न किम्॥ अनुवाद-"ऐसा कोई नियम नहीं है कि धनप्राप्ति क्रमशः होती है। किसी दरिद्र को एक बार में भी राज्यप्राप्ति होती देखी जाती है। इसी प्रकार किसी को क्या बिना क्रम के अर्थात् सम्यग्दृष्टि, देशविरत, विरत आदि अवस्थाओं को प्राप्त किये बिना मुक्ति नहीं हो सकती?" इसके उत्तर में श्री हरिभद्रसूरि लिखते हैं-"इत्येतद्व्यपोहायाह-परम्परागतेभ्यः।" अर्थात् इसी का निषेध करने के लिए तो मंगलगाथा में परंपरागत (क्रम से सिद्ध) कहा गया है। फिर वे परम्परा का अर्थ बतलाते हुए कहते हैं-"परम्परया ज्ञानदर्शनचारित्ररूपया मिथ्यादृष्टि-सास्वादन-सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यविरतसम्यग्दृष्टि-विरताविरतप्रमत्ताप्रमत्त-निवृत्त्यनिवृत्तिबादरसूक्ष्मोपशान्त-क्षीणमोह-सयोग्ययोगि-गुणस्थान-भेदभिन्नया गताः परम्परागताः एतेभ्यः।" (ललितविस्तरा / 'सिद्धाणं'–गाथा १/ पृ.३९४)। यहाँ श्री हरिभद्रसूरि ने चतुर्दश गुणस्थानों को सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र की उत्तरोत्तर विकसित अवस्था बतलाया है और उनके समूह को 'मोक्षपरम्परा' (मोक्ष का क्रमिक मार्ग) नाम देकर स्पष्ट किया है कि इन गुणस्थानों को प्राप्त हुए बिना मुक्ति संभव नहीं है। यतः मोक्षमार्ग चतुर्दश गुणस्थानों का अविनाभावी है, अतः गुणस्थानों की अवधारणा उतनी ही पुरानी है, जितनी मोक्षमार्ग की। इसलिए उसे ईसा की चौथी शताब्दी के बाद विकसित बतलाना एक महान् सत्य के अपलाप की हास्यास्पद चेष्टा है। ३.५. विकास का अर्थ : ऋषभादि में सम्यक्त्वादि की अनुत्पत्ति मानना वीरसेन स्वामी ने जीव के औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों को गुणस्थान कहा है-"औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिका इति गुणाः।" (धवला/ ष.ख./पु.१/१,१,८/ पृ.१६२)। श्री केशववर्णी ने स्पष्ट किया है कि मिथ्यात्व से लेकर अयोगिकेवलित्व पर्यन्त जीव के चौदह परिणामविशेष गुणस्थान हैं-"मिथ्यात्वादयोऽयोगिकेवलित्वपर्यन्ता जीवपरिणामविशेषास्त एव गुणस्थानानीति प्रतिपादितम्।" (जी.त.प्र./गो.जी./ गा.८)। वे चौदह परिणामविशेष इस प्रकार हैं : मिथ्यादृष्टित्व, सासादन-सम्यग्दृष्टित्व, सम्यग्मिथ्यादृष्टित्व, असंयतसम्यग्दृष्टित्व, संयतासंयतत्व, प्रमत्त-संयतत्व, अप्रमत्तसंयतत्व, अपूर्वकरणत्व, अनिवृत्तिबादरसाम्परायत्व, सूक्ष्मसाम्परायत्व, उपशान्तमोहत्व, क्षीणकषायत्व, सयोगिकेवलित्व और अयोगिकेवलित्व। इन चौदह परिणामोंवाले गुणस्थानसिद्धांत को यदि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल (श्वेताम्बरमतानुसार ईसा की तीसरी-चौथी शती) के बाद विकसित माना जाय, तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy