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________________ ४१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ इस प्रकार चूँकि गुणश्रेणिनिर्जरा के दस स्थानों का उपदेश तत्त्वार्थसूत्रकार ने षट्खण्डागम से ग्रहण किया है और चतुर्दश गुणस्थानों का विवरण भी उसी षटखण्डागम में उपलब्ध है, अतः सिद्ध है कि गुणस्थानसिद्धान्त का विकास तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद उक्त दस निर्जरास्थानों के आधार पर नहीं हुआ, अपितु वह जिनोपदिष्ट है। ३.३. भद्रबाहु-द्वितीय ही नियुक्तियों के कर्ता गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि तत्त्वार्थसूत्र के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र का स्रोत आचारांगनियुक्ति की पूर्वोक्त गाथाएँ हैं। किन्तु नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु-द्वितीय का अस्तित्वकाल ईसा की छठी शताब्दी है और तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल श्वेताम्बर विद्वान् ईसा की तीसरी-चौथी शती मानते हैं, अतः आचारांगनियुक्ति का तत्त्वार्थसूत्र के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र का स्रोत होना सिद्ध नहीं होता। उपर्युक्त प्रमाणों से षट्खण्डागम ही आचारांगनियुक्ति की उक्त गाथाओं एवं 'तत्त्वार्थ' के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र का स्रोत साबित होता है। किन्तु गुणस्थानविकासवादी विद्वान् को यह स्वीकार्य नहीं हो सकता था, क्योंकि इससे दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम, तत्त्वार्थसूत्र से प्राचीन सिद्ध होता है, जो वे नहीं चाहते थे। अतः उन्होंने इस सत्य को झुठलाने के लिए कोई न कोई युक्ति निकालने की कोशिश की और इस कोशिश में उन्होंने श्वेताम्बर-परम्परा के सर्वमान्य इतिहास को ही पलट देने का करिश्मा कर डाला। उन्होंने सारे प्रमाणों को ताक पर रखते हुए मिथ्या एवं बाल तर्कों से एक ऐसे व्यक्ति को नियुक्तियों का कर्ता घोषित कर दिया, जो तत्त्वार्थसूत्रकार से सौ-सवा सौ वर्ष पहले हुए थे और जिनके नाम का अर्धांश भद्रबाहु के नाम के अर्धांश से मिलता है। वे व्यक्ति हैं आर्यभद्र। अपनी कपोलकल्पना को शब्दों के वस्त्र पहनाते हुए वे लिखते हैं "किन्तु नियुक्तियों को वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु की कृतियाँ मानने में भी कई कठिनाइयाँ हैं। यदि हम यह मानते हैं कि ईस्वी सन् की पाँचवीं शताब्दी में होनेवाले भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई हैं, तो सबसे पहला प्रश्न यह उठेगा कि वी० नि० सं० ६०९ अर्थात् ईस्वी सन् द्वितीय शती में होनेवाले बोटिक निह्नव की चर्चा इसमें क्यों नहीं है? दूसरे, यह कि ईसा की पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक तो गुणस्थान की अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गई थी, उनका अन्तर्भाव नियुक्तियों में क्यों नहीं हो पाया, जब कि आचारांगनियुक्ति 'तत्त्वार्थ' के समान मात्र दस अवस्थाओं की ही चर्चा करती है, वह परवर्ती ग्यारह गुणश्रेणियों अथवा चौदह गुणस्थानों की चर्चा क्यों नहीं करती है? नियुक्तियों में उपलब्ध विषयवस्तु की दृष्टि से हमें यही मानना होगा कि वे लगभग ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी की रचना हैं। पुनः वी० नि० सं० ५८५ तक होनेवाले निह्नवों के उल्लेख और वी० नि० सं० ६०९ में होनेवाले बोटिक शिवभूति Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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