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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४१३ थी। तथा वे स्वयं उसके जन्मदाता नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने न तो यह निर्देश किया है कि वे दस स्थान क्या हैं, किस चीज के भेद हैं, उनके 'सम्यग्दृष्टि' आदि नाम क्यों पड़े? न ही अनन्तवियोजक का क्या अर्थ है? उपशमक-क्षपक से क्या तात्पर्य है? इत्यादि का कोई स्पष्टीकरण किया है। यदि वे उन स्थानों के शिल्पी होते, तो इस सबका पूर्ण विवरण दिये बिना न रहते, क्योंकि उसके बिना इन दस स्थानों के वर्णन मात्र से पाठकों के पल्ले कुछ भी न पड़ता। तत्त्वार्थसूत्रकार ने यह सब नहीं किया, इससे सिद्ध है कि वे स्थान तत्त्वार्थसूत्रकार के मस्तिष्क की उपज नहीं हैं, अपितु उनकी अवधारणा उन्हें अपनी परम्परा के किसी प्राचीन ग्रन्थ से प्राप्त हुई है। वह प्राचीन ग्रन्थ है षट्खण्डागम। उसमें उक्त दस स्थानों का वर्णन निम्नलिखित गाथाओं में किया गया है
सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावय-विरदे अणंतकम्मंसे। दंसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते॥ ७॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा।
तविवरीदो कालो संखेज्जगुणाए सेडीए॥ ८॥१६८ इन दो गाथाओं के अतिरिक्त इनके पश्चात् ( ष.खं/ पु.१२/४,२,७ के) १७५वें सूत्र से लेकर १९६वें सूत्र तक 'जिन' नामक स्थान के 'स्वस्थानजिन' और 'योगनिरोध में प्रवृत्त जिन', इन दो भेदों सहित ग्यारह अवस्थाओं (गुणश्रेणियों ) में होनेवाली गुणश्रेणिनिर्जरा तथा उसके काल का कथन किया गया है।
षट्खण्डागम की रचना ईसापूर्व प्रथम शती में हुई थी ( देखिए 'षट्खण्डागम' नामक ११वाँ अध्याय ), जब कि तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल दिगम्बरमतानुसार प्रथमद्वितीय शताब्दी ई० और श्वेताम्बरमतानुसार तीसरी-चौथी शती ई० है। अतः यह निर्विवाद है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में वर्णित दस निर्जरा-स्थानों की अवधारणा षट्खण्डागम से ग्रहण की है। इसी प्राचीन ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक विकास की चौदह अवस्थाएँ बतलायी गयी हैं, जिन्हें 'जीवसमास' एवं 'गुणस्थान' शब्द से अभिहित किया गया है।१६९ षट्खण्डागम में इन अवस्थाओं का विस्तार से परिचय दिया गया है, जिसमें यह भी बतलाया गया है कि ये किन कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम या क्षय से प्रकट होती हैं।१७०
१६८. षटखण्डागम / पु.१२ / ४, २, ७ / प्रथम चूलिका / पृ.७८ । १६९. षट्खण्डागम / पु.१/१, १,९-२३। १७०. वही / पु.७/ २,१,४६-५५,६८-८१ ।
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