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________________ ४१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ खवए य खीणमोहे जिणे य सेढीभवे असंखिजा। तव्विवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए॥ २३॥ __ आचारांगनियुक्ति-नियुक्तिसंग्रह / पृ.४४१ । "यदि हम नियुक्तिसाहित्य को तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा प्राचीन मानते हैं, तो हमें यह कहना होगा कि तत्त्वार्थसूत्र की इन दस अवस्थाओं का प्राचीनतम स्रोत आचारांगनियुक्ति ही है। यद्यपि आचारांगनियुक्ति में जिस स्थल पर ये गाथाएँ हैं, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि ये गाथाएँ मूलतः नियुक्तिकार की नहीं हैं, अपितु पूर्वसाहित्य के किसी कर्मसिद्धांत-सम्बन्धी ग्रन्थ से इन गाथाओं को इसमें अवतरित किया गया है, क्योंकि 'सम्यक्त्व-पराक्रम' की चर्चा के प्रसंग में ये गाथाएँ बहुत अधिक प्रासंगिक नहीं लगती हैं। फिर भी गुणश्रेणी की अवधारणा का अभी तक जो प्राचीनतम स्रोत उपलब्ध है, वह तो यही है।"१६७ आचारांगनियुक्ति के कर्ता वराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु द्वितीय हैं, जिनका समय ईसा की छठी शताब्दी (वि० सं० ५६२) है। और पं० सुखलाल जी संघवी आदि श्वेताम्बर विद्वानों ने तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति का काल ईसा की तीसरी-चौथी शती माना है। अतः आचारांगनियुक्ति 'तत्त्वार्थ' के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में वर्णित आध्यात्मिक विशुद्धि की दस अवस्थाओं का स्रोत नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त गाथाएँ आचारांगनियुक्ति की मौलिक गाथाएँ नहीं हैं । गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने उन्हें पूर्वसाहित्य के किसी कर्मसिद्धान्त-सम्बन्धी ग्रन्थ से अवतरित माना है। उन्होंने उस ग्रन्थ के साथ 'किसी' विशेषण का प्रयोग किया है, जिससे सिद्ध है कि उन्हें स्वयं नहीं मालूम कि वह कौन सा ग्रन्थ है? अर्थात् वर्तमान श्वेताम्बरसाहित्य में वह उपलब्ध नहीं है। और पूर्व श्वेताम्बरसाहित्य में ऐसा कोई ग्रन्थ था, इसका कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए एक काल्पनिक ग्रन्थ को आचारांगनियुक्ति की उपर्युक्त गाथाओं का स्रोत नहीं माना जा सकता। __ वस्तुतः वे गाथाएँ ईसापूर्व प्रथम शती में रचित दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम की गाथाएँ हैं, वहीं से आचारांगनियुक्ति में ग्रहण की गयी हैं, जिस प्रकार 'समवायांग' में चौदहगुणस्थानों के नाम षट्खण्डागम से लिये गये हैं। ३.२. तत्त्वार्थसूत्र के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र का स्रोत षट्खण्डागम अभिप्राय यह कि गुणश्रेणिनिर्जरा के उपर्युक्त दस स्थानों की अवधारणा श्वेताम्बरसाहित्य में उपलब्ध नहीं है, अतः तत्वार्थसूत्रकार को वहाँ से प्राप्त नहीं हो सकती १६७. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण / पृ.२०-२१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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