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________________ अ०१० / प्र०५ गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। यदि अनन्तानुबन्धी उदित हो जाती है, तो में पहुँच जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गृध्रपिच्छाचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में जिस कर्मव्यवस्था का प्ररूपण किया है उससे चतुर्दश- गुणस्थान- व्यवस्था स्वतः सिद्ध होती है, अतः तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद उसके विकसित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह उतनी ही प्राचीन है, जितना तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित कर्मसिद्धान्त । आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४११ सासादनगुणस्थान ३ विकासवादविरोधी अनेक हेतु गुणस्थानविकासवादी विद्वान् का कथन है कि " आध्यात्मिक विशुद्धि की 'सम्यग्दृष्टि' आदि दस अवस्थाओं के आधार पर ही गुणस्थान- सिद्धान्त का तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकास हुआ है।" किन्तु यह सिद्ध हो चुका है कि उक्त दस अवस्थाएँ गुणस्थान ही हैं, अतः गुणस्थानसिद्धान्त के विकास की मान्यता निरस्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त ऐसे अनेक हेतु हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि इस मान्यता के लिए स्थान ही नहीं है। पहले हेतु की उपलब्धि यह अनुसन्धान करने पर होती है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को गुणश्रेणिनिर्जरा के दस स्थानों का उपदेश कहाँ से प्राप्त हुआ ? ३.१. श्वेताम्बरागमों में गुणश्रेणिनिर्जरा का उल्लेख नहीं श्वेताम्बर-आगमों में गुणश्रेणिनिर्जरा के दस स्थानों का उल्लेख उपलब्ध नहीं है, गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने यह स्वयं स्वीकार किया है। वे लिखते हैं Jain Education International “हम इस सम्बन्ध में अपनी खोज जारी रखे हुए थे कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित इन दस अवस्थाओं का आगमिक आधार क्या है और इन अवस्थाओं का प्राचीनतम उल्लेख किस ग्रन्थ में मिलता है? अपनी इस खोज के दौरान हमने श्वेताम्बरमान्य आगमसाहित्य का आलोडन किया, किन्तु उसमें हमें कहीं भी इन दस अवस्थाओं का उल्लेख प्राप्त नहीं हो सका । उसके बाद हमने प्राचीनतम आगमिक व्याख्याओं की दृष्टि से निर्युक्तियों का अध्ययन प्रारम्भ किया और संयोग से आचारांगनिर्युक्ति के 'सम्यक्त्व - पराक्रम' नामक चतुर्थ अध्याय की नियुक्ति में इन दस अवस्थाओं का उल्लेख करनेवाली निम्नलिखित दो गाथाएँ उपलब्ध हुयीं - --- सम्मत्तप्पत्ती सावए य विरए अणंतकम्मंसे । उवसामंते य दंसणमोहक्व For Personal & Private Use Only उवसंते॥ २२॥ www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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