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________________ ४०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी ने भी तत्त्वार्थसूत्र में बाईस परीषहों, चतुर्विध ध्यानों और गुणश्रेणी निर्जरा के स्वामित्व का कथन गुणस्थान के आश्रय से किया गया माना है। यह उनके पूर्वोद्धृत कथनों से स्पष्ट है। गुणस्थाननियम के आश्रय से बन्ध और मोक्ष के कारणभूत परिणामों का सुसंगत कथन तब तक संभव नहीं है, जब तक गुणस्थाननियम आगमसिद्ध न हो और ग्रन्थकार को उसका परिपूर्ण ज्ञान न हो। तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा किया गया कथन अत्यन्त संगत है। इसीलिए सभी टीकाकारों ने उसका अनुसरण किया है और अन्य ग्रन्थकारों ने उसे प्रमाणरूप में उद्धृत किया है, जैसे अपराजितसूरि ने उपर्युक्त उद्धरण में। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना के समय गुणस्थाननियम आगमप्रसिद्ध था और तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को उसका ज्ञान आचार्यपरम्परा से प्राप्त था। पता नहीं डॉ० सागरमल जी को तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थाननियम या गुणस्थान-सिद्धान्त के बीज ही क्यों दृष्टिगोचर हुए, चतुर्दश शाखाओं से समृद्ध इतना विशालवृक्ष उनकी दृष्टि में क्यों नहीं आया? अस्तु । ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में न केवल चौदह गुणस्थानों की अवधारणा है, अपितु चौदह गुणस्थानों के आश्रय से बाईस परीषहों, चतुर्विध ध्यानों और गुणश्रेणिनिर्जरा के स्वामियों का कथन किया गया है, जिसका समर्थन श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनगणी तथा प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी की टीकाओं से भी होता है। अतः डॉ० सागरमल जी का यह कथन सर्वथा असत्य है कि "तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य (लगभग तीसरी-चौथी शती ई०) में गुणस्थान-सिद्धान्त का कोई उल्लेख नहीं है, इसलिए वह उस समय की रचना है जब गुणस्थानसिद्धान्त का विकास नहीं हुआ था।" २.१४. तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान-अवधारणा के सुदृढ़ प्रमाण उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानसिद्धान्त की अवधारणा सुदृढ़-रूप में विद्यमान है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में गुणस्थानों के नाम निर्दिष्ट किये हैं, गुणस्थानों से सम्बन्धित उपशमक और क्षपक श्रेणियों तथा 'अनन्तवियोजक' एवं 'दर्शनमोहक्षपक' संज्ञाओं का उल्लेख किया है। विभिन्न सूत्रों में गुणस्थानानुसार परीषहों के पात्रों एवं चतुर्विध ध्यान के स्वामियों का प्ररूपण किया है। ये इस बात के प्रमाण हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार के सामने गुणस्थानसिद्धान्त की अवधारणा पूर्णरूप में मौजूद थी। यदि तत्त्वार्थसूत्र की रचना के पहले गुणस्थान की अवधारणा न होती, तो तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दृष्टि, श्रावक (देशविरत), प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवाचक संज्ञाओं का प्रयोग भी न हुआ होता, क्योंकि गुणस्थान-अवधारणा के अभाव में ये अस्तित्व में ही न आये होते। गुणस्थान की अवधारणा के अभाव में यह निर्णय भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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