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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४०९ न हो पाता कि किन गुणस्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है, किस गुणस्थान में कितने परीषह होते हैं और किस गुणस्थान में कौन सा ध्यान होता है? उक्त स्थिति में उपशमक, क्षपक, अनन्तवियोजक और दर्शनमोहक्षपक जैसे गुणस्थानसम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग भी संभव न होता। चारित्र के सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात भेदों की अवधारणा भी असंभव होती। यह भी निश्चित नहीं किया जा सकता था कि आहारकशरीर की प्राप्ति प्रमत्तसंयत को ही हो सकती है। गुणस्थानसम्बन्धी ये सूक्ष्म से सूक्ष्म सिद्धान्त तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध हैं, अतः सिद्ध है कि गुणस्थानसिद्धान्त की अवधारणा तत्त्वार्थसूत्रकार को अपनी गुरुपरम्परा से प्राप्त हुई थी, तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकसित नहीं हुई। २.१५. तत्त्वार्थसूत्र की कर्मव्यवस्था से गुणस्थानव्यवस्था स्वतः सिद्ध ___ 'तत्त्वार्थसूत्र' में जो कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय की व्यवस्था का, औदयिक आदि पाँचों भावों का, दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय की विभिन्न प्रकृतियों का एवं मिथ्यादर्शनादि पाँच बन्धहेतुओं का निर्देश किया गया है, उससे चौदह गुणस्थानों की व्यवस्था स्वतः सिद्ध होती है। कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय से प्रकट होनेवाली जीव की अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। कर्मों का उदय तो अनादिकाल से है, उपशम आदि मोक्ष के पौरुष से होते हैं। अतः मोक्ष-पौरुष से ज्यों-ज्यों कर्मों के उपशम आदि होते हैं, त्यों-त्यों सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान अपने आप प्रकट होते हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने "औपशमिक-क्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च।"( त.सू./२/१), इस सूत्र में जीव के पाँच भाव बतलाये हैं : औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक। इनमें औदयिक भाव इक्कीस हैं, जिनमें मिथ्यादर्शन जीव में अनादिकाल से प्रकट है, जो पहला 'गुणस्थान है। "सम्यक्त्वचारित्रे" ( त.सू./२/३) सूत्र में औपशमिक भावों के भेद बतलाये गये हैं। वे दो हैं : औपशमिक-सम्यक्त्व और औपशमिक-चारित्र। औपशमिकसम्यक्त्व दर्शनमोहनीय के अप्रशस्त उपशम एवं अनन्तानुबन्धी कषाय के स्तिवुकसंक्रमण या विसंयोजना से प्रकट होता है, वह चतुर्थ गुणस्थान है। औपशमिक-चारित्र चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम से प्रकट होता है। पूर्वापर-कारणकार्यभाव एवं कर्मप्रकृतियों के क्रमशः उपशम से उपशमचारित्रवाले गुणस्थान के चार भेद होते हैं : अपूर्वकरणउपशमक, अनिवृत्ति-बादरसाम्पराय-उपशमक, सूक्ष्मसाम्पराय-उपशमक और उपशान्तमोह। इनमें से अन्तिम तीन का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रकार ने निम्नलिखित सूत्रों में किया है-"बादरसाम्पराये सर्वे" (९/१२), "सूक्ष्मसाम्पराय-छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश" (९/ १०) एवं “सामायिकच्छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यातमिति चारित्रम्" (९/१८)। गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में भी 'उपशमक' संज्ञा द्वारा उपशमचारित्रवाले Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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