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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४०७ भावों में से प्रथम चार भाव भी औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक गुणस्थानों के निष्पादक हैं। और षष्ठ अध्याय में तेरह गुणस्थानों को ही विभिन्न कर्म प्रकृतियों का आस्रवक बतलाया गया है, जैसे-'सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरा बालतपांसि दैवस्य' (त.सू. / ६/२०)। इस सूत्र में 'सरागसंयम' शब्द द्वारा षष्ठ एवं सप्तम गुणस्थानों को और 'संयमासंयम' शब्द से पञ्चम गुणस्थान को देवायु का आस्रवक बतलाया गया है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र का सम्पूर्ण प्रतिपादन गुणस्थान-केन्द्रित ही है। यदि गुणस्थानव्यवस्था का विकास तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद हुआ होता, तो उसमें षट्खण्डागम की गुणस्थान-व्यवस्था से अक्षरशः संगति रखनेवाला इतना सुव्यवस्थित, निर्दोष, गुणस्थानकेन्द्रित विषय-प्रतिपादन नहीं हो सकता था। स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को षटखण्डागम, भगवती-आराधना आदि पूर्ववर्ती ग्रन्थों में प्ररूपित गुणस्थान-व्यवस्था का ज्ञान गुरुपरम्परा से प्राप्त था। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि इन ग्रन्थों की रचना तत्त्वार्थसूत्र की रचना से पहले हुई थी। २.१३. तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान-केन्द्रित निरूपण सर्वमान्य सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्यों और विद्वानों को यह मान्य है कि तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान-केन्द्रित प्ररूपण है। पूज्यपाद, अकलंकदेव, श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनगणी आदि की टीकाएँ इसका प्रमाण हैं। सिद्धसेनगणी ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में आये वीतरागच्छद्मस्थ शब्द का अर्थ ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती उपशान्तमोह और क्षीणमोह निर्ग्रन्थ किया है-"उपशमितक्षपितमोहजाला विगताशेषरागद्वेषमोहत्वाद् एकादश-द्वादशगुणस्थानवर्तिनस्ते छद्मस्थाः।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ९/४८/ पृ.२८४)। तथा सयोगाः और शैलेशीप्रतिपन्नाः को क्रमशः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती स्नातक शब्द से व्याख्यात किया है, यथा-"सयोगाः त्रयोदश-गुणस्थानवर्तिनो निरस्तघातिकर्मचतुष्टयाः केवलिनः स्नातकाः। शैलेशीप्रति-पन्नाश्चेत्यनेनायोगकेवलिन उपात्ताः।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ९/४८/ पृ.२८४) इससे स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में चौदह गुणस्थानकेन्द्रित निरूपण है, यह तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के प्रसिद्ध टीकाकार सिद्धसेनगणी को भी मान्य है। 'भगवती-आराधना' के टीकाकार अपराजितसूरि ने लिखा है कि तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानमात्र का आश्रय लेकर आर्त और रौद्रध्यान के स्वामियों का कथन किया गया है। जैसे "तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानां, हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोरिति गुणस्थानमात्राश्रयणेनैव स्वामिनिर्देशकृतत्वात्।" (वि.टी./गाथा-'धम्म' १६९४)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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