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________________ ४०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ शब्द से अभिहित किया गया है। अविरति के सर्वथा अभाव, किन्तु प्रमाद के सद्भाव की अवस्था को प्रमत्तसंयत-गुणस्थान संज्ञा प्रदान की गयी है, और अविरति तथा प्रमाद दोनों के अभाव की अवस्था अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान नाम से वर्णित की गयी है। अविरति और प्रमाद के अभाव के साथ उपशम या क्षय के द्वारा उत्तरोत्तर न्यून होती हुई कषायों के उदय से युक्त अवस्थाओं को क्रमशः अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान नाम दिये गये हैं। समस्त कषायों के उपशम से युक्त अवस्था उपशान्तमोह-गुणस्थान और क्षय से युक्त अवस्था क्षीणमोह-गुणस्थान कही गयी है। केवलज्ञान के साथ योग के सद्भाव की अवस्था को सयोगिकेवली-गुणस्थान और योग के अभाव की अवस्था को अयोगिकेवली-गुणस्थान नामों से व्यवहृत किया गया है। इस प्रकार उपर्युक्त बन्धहेतु-सूत्र द्वारा जीव की चौदह गुणस्थानरूप अवस्थाएँ द्योतित की गयी हैं। यहाँ यह ध्यान में रखने योग्य है कि मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान में बन्ध के मिथ्यादर्शनादि पाँचों हेतु विद्यमान होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में मिथ्यादर्शन को छोड़कर शेष चार बन्धहेतुओं का अस्तित्व होता है। संयता-संयत-गुणस्थान में विरतिमिश्र-अविरति (स. सि. / ८/१, तार्थिवृत्ति ८/१) तथा प्रमाद, कषाय और योग ये चार बन्ध हेतु उपलब्ध होते हैं। प्रमत्तसंयतगुणस्थान में प्रमाद, कषाय और योग इन तीन बन्धहेतुओं की सत्ता होती है। अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति-बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानों में कषाय और योग, ये दो बन्धहेतु होते हैं। तथा उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय एवं सयोगिकेवली गुणस्थानों में मात्र योग नामक बन्धहेतु का अस्तित्व होता है। अयोगिकेवली गुणस्थान में कोई भी बन्धहेतु नहीं होता। 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (त.सू./१/१) सूत्र असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगकेवली तक के ग्यारह गुणस्थानों को प्रतिबिम्बित करता है, क्योंकि ये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्तरोत्तर विकसित होती हुई अवस्थाएँ हैं। 'तपसा निर्जरा च' (त. सू./९/३) सूत्र द्वारा तप को निर्जरा का साधन निरूपित कर, ध्यान को छह आभ्यन्तर तपों में परिगणित कर और चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों को ध्यान का अधिकारी बतलाकर उक्त ग्यारह गुणस्थानों को ही सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित किया गया है।१६६ इस तरह तत्त्वार्थसूत्र के प्रतिपाद्य विषय की आधारशिला ही चौदह-गुणस्थान हैं। "औपशमिकक्षायिको भावी मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च" (त.सू./२/१)-जीव के इन पाँच १६६."मोक्षस्य सोपानीभूतानि चतुर्दश गुणस्थानानि।" धवला / ष.ख/ पु.१/१,१,२२/ पृ.२०१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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