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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४०५ मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, इस क्रम से परस्पर अनुबद्धरूप में शास्त्र में प्रसिद्ध हैं, इसीलिए 'अविरत' शब्द अन्तदीपक के रूप में प्रयुक्त किये जाने पर इन चारों गुणस्थानों का बोध कराता है, क्योंकि इन चारों गुणस्थानों में अविरतिभाव मौजूद है। यदि ये चारों उक्त प्रकार से अनुबद्धक्रम में आगमप्रसिद्ध न होते, तो न तो कोई ग्रन्थकार 'अविरत' शब्द का अन्तदीपक के रूप में प्रयोग कर सकता था, न ही कोई पाठक या टीकाकार इस शब्द से उक्त चारों गुणस्थानों का अभिप्राय ग्रहण कर पाता। यतः तत्त्वार्थसूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र में 'अविरत' और 'बादरसम्पराय' शब्दों का प्रयोग अन्तदीपक के रूप में किया है अर्थात् उनके द्वारा उक्त धर्मोंवाले सभी पूर्ववर्ती गुणस्थानों का कथन किया है, अतः इस प्रतिपादनशैली से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि तत्त्वार्थसूत्रकार के काल में चौदह गुणस्थान परस्पर-अनुबद्ध क्रम में आगमप्रसिद्ध थे और वे आगम थे कसाय-पाहुड, षट्खण्डागम, समयसार, मूलाचार आदि। अतः गुणस्थानसिद्धान्त के विषय में जो विकासवादी अवधारणा थोपी गई है और तत्त्वार्थसूत्र में जो उसके बीजमात्र होने की अवधारणा पैदा की गयी है, वह एक महान् सत्य का अपलाप करने की खेदजनक चेष्टा है। २.१२. तत्त्वार्थसूत्र का सम्पूर्ण प्रतिपादन गुणस्थान-केन्द्रित जीव के चतुर्दश-गुणस्थानरूप परिणामों, उनके निमित्त से उत्पन्न होनेवाले आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षरूप फलों तथा उन परिणामों की चतुर्विध-ध्यानादिविषयक योग्यताओं का वर्णन ही सम्पूर्ण तत्त्वार्थसूत्र में है। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के सद्भाव और अभाव से युक्त जीव अवस्थाओं का नाम गुणस्थान है। इन पाँच भावों का वर्णन तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' (त. सू./८/१) इस सूत्र में किया है। ये बन्ध के हेतु हैं, इसलिए इनके अभाव से प्रकट सम्यग्दर्शन, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग ये पाँच भाव मोक्ष के हेतु हैं, यह अर्थ उन्हें बन्ध-हेतु कहने से स्वतः फलित होता है। इस प्रकार सभी चौदह गुणस्थान इस एक सूत्र द्वारा घोतित किये गये हैं। उदाहरणार्थ, मिथ्यादर्शन के उदय से युक्त जीव की अवस्था का नाम मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान है। अनन्तानुबन्धी के उदय से सम्यग्दर्शन के विनाश और एक समय से लेकर अधिक से अधिक छह आवली-काल तक मिथ्यादर्शन के उदय न होने की अवस्था को सासादन-गुणस्थान कहते हैं। मिथ्यादर्शन के अनुदय, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व के उदय की अवस्था सम्यग्मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान कहलाती है। मिथ्यादर्शन के विनाश से उत्पन्न सम्यग्दर्शन तथा उसके साथ अविरति के सद्भाव की अवस्था अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कही गयी है। अविरति और विरति की मिश्रावस्था को देशविरत या संयतासंयत-गुणस्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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