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४०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ सुखलाल जी संघवी ने भी उक्त सूत्र का विवेचन करते हुए लिखा है-"प्रथम (अविरत) के चार (मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि) तथा देशविरत व प्रमत्तसंयत इन छः गुणस्थानों में उक्त आर्तध्यान संभव है।" (त.सू./ वि.स./९/३१-३५ / पृ.२२६)।
___ इसी प्रकार रौद्रध्यान के पात्रों का कथन करते हुए सूत्रकार ने यह सूत्र रचा है-'हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः' (त.सू./९/३५)।।
अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी और विषयसंरक्षण के निमित्त से अविरत और देशविरत जीवों को रौद्रध्यान होता है।
यहाँ भी 'अविरत' पद अन्तदीपक के रूप में प्रयुक्त किया गया है, अत एव उससे भी उपर्युक्त चारों गुणस्थान संकेतित किये गये हैं।
'बादरसाम्पराये सर्वे' (त.सू./९/१२) इस सूत्र में प्रयुक्त 'बादरसाम्पराय' पद श्वेताम्बरमत के अनुसार अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान का वाचक है और अन्तदीपकन्याय से अपने साथ अपने से पूर्ववर्ती गुणस्थानों का भी बोध कराता है। यह स्पष्टीकरण पं० सुखलाल जी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र की विवेचना में इस प्रकार किया है
"जिसमें सम्पराय (कषाय) की बादरता अर्थात् विशेषरूप में सम्भावना हो उस बादरसम्पराय नामक नवें गुणस्थान में बाईस परीषह होते हैं, क्योंकि परीषहों के कारणभूत सभी कर्म वहाँ होते हैं। नवें गुणस्थान में बाईस परीषहों की संभावना का कथन करने से उसके पहले के छठे आदि गुणस्थानों में उतने ही परीषह संभव हैं, यह स्वतः फलित हो जाता है।" (त.सू./वि.स./९/१०-१२/ पृ.२१६) ।
दिगम्बरमत इससे भिन्न है। सर्वार्थसिद्धि (९ / १२) में बादरसाम्पराय शब्द को नवम गुणस्थान का वाचक न मानकर स्थूलकषाय का वाचक स्वीकार करते हुए सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान से पहले के प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्ति बादरसाम्पराय, इन चार गुणस्थानों का बोधक माना है, जैसा कि पूज्यपाद स्वामी के निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट है-"साम्परायः कषायः। बादरः साम्परायो यस्य स बादरसाम्पराय इति। नेदं गुणस्थानविशेष-ग्रहणम्। किं तर्हि? अर्थनिर्देशः। तेन प्रमत्तादीनां संयतानां ग्रहणम्" (स.सि./९/१२)।
__इस प्रकार आदिदीपक, मध्यदीपक और अन्तदीपक के रूप में किसी विशेषण का प्रयोग तभी किया जा सकता है, जब उससे संकेतित धर्म अनेक पदार्थों में हो और वे परस्पर अनुबद्धक्रम में आगमप्रसिद्ध या लोकप्रसिद्ध हों। जैसे, चौदह गुणस्थान
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