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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४०३ इससे भी साबित होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में उल्लिखित गुणस्थान उसके कर्ता ने कल्पित नहीं किये।
४. श्वेताम्बरपरम्परा में उमास्वाति को सूत्र और भाष्य दोनों का कर्ता माना गया है। भाष्य की सम्बन्धकारिकाओं में उमास्वाति ने कहा है कि तत्त्वार्थसूत्र एक संग्रहग्रन्थ है।६३ अर्थात् उसमें प्रतिपादित विषय पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों से संगृहीत किये गये हैं। यह भी इस बात का प्रमाण है कि तत्त्वार्थसूत्रोल्लिखित गुणस्थान तत्त्वार्थसूत्रकार की बुद्धि से उद्भूत नहीं, अपितु आगमोक्त हैं।
५. श्वेताम्बरीय 'जीवसमास' (छठी शती ई०) में चौबीस तीर्थंकरों को चौदह गुणस्थानों का ज्ञाता कहा गया है,१६४ जिससे सिद्ध है कि श्वेताम्बराचार्य भी उमास्वाति को गुणस्थानसिद्धान्त का प्रवर्तक नहीं मानते। इसका फलितार्थ यह है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को गुणस्थानसिद्धान्त का ज्ञान आचार्यपरम्परा से प्राप्त था अर्थात् वह जिनोपदिष्ट है।
२.११.२. अन्तदीपकन्याय से अनुक्त गुणस्थानों का द्योतन-गुणस्थानाश्रित निरूपण के संक्षिप्तीकरण के लिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने जो दूसरा उपाय अपनाया है, वह है अन्तदीपकन्याय से अनुक्त गुणस्थानों का द्योतन।
ग्रन्थकार ने अन्तदीपकन्याय से समानधर्म-वाचक शब्द के द्वारा सभी समानधर्मा गुणस्थानों को द्योतित किया है। जैसे आर्तध्यान के स्वामियों ( पात्रों ) का वर्णन करते हुए वे कहते हैं-'तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्।' (त.सू./९/३४) (= वह आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों को होता है)। यहाँ अविरत' शब्द को अन्तदीपक के रूप में प्रयुक्त कर उसके द्वारा अविरति-धर्मवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरत-सम्यग्दृष्टि इन आदि के चार गुणस्थानों का बोध कराया गया है,१६५ क्योंकि इन चारों गुणस्थानों में आर्त्तध्यान सम्भव है। यदि 'अविरत' शब्द से केवल अविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान का उल्लेख माना जाय तो यह सिद्ध होगा कि मिथ्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में आर्तध्यान नहीं होता, जो आगमविरुद्ध है। अतः स्पष्ट है कि 'अविरत' पद उपर्युक्त चार गुणस्थानों का द्योतन करता है। माननीय पं०
१६३. तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थं सङ्ग्रहं लघुग्रन्थम्।
वक्ष्यामि . शिष्यहितमिममहद्वचनैकदेशस्य॥ २२ ॥ तत्त्वार्थधिगमभाष्य। १६४. दस चोद्दस य जिणवरे चोद्दस गुणजाणए नमंसिता।
चोद्दस जीवसमासे समासओऽणुक्कमिस्सामि॥ १॥ जीवसमास। १६५. "अविरताः असंयतसम्यग्दृष्ट्यन्ताः।" (स.सि /९/३४)। "असंजद इदि जं सम्मादट्ठिस्स
विसेसण-वयणं तमंतदीवयत्तादो हेट्ठिल्लाणं सयलगुणट्ठाणाणमसंजदत्तं परूवेदि।" धवला/ ष.ख/पु.१ / १, १, १२ / पृ.१७४।
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