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________________ ४०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ वर्णन किया है वह कार्यकारी न होता, क्योंकि पाठक जब यही नहीं समझ पाते कि अविरत, देशविरत आदि किसके नाम हैं, उनसे क्या विवक्षित है, तब उनके विषय में किये गये कथन को यथावत् कैसे ग्रहण कर पाते? अतः सिद्ध है कि गुणस्थानसिद्धान्त पूर्वप्रसिद्ध था, इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने उसका परिचय दिये बिना ही गुणस्थानसम्बन्धी निरूपण किया है। दूसरी बात यह है कि यदि सूत्रकार स्वयं गुणस्थान-सिद्धान्त से अपरिचित होते, तो न तो वे उक्त गुणस्थान-भेदों का उल्लेख कर पाते, न ही उनमें विभिन्न परीषहों, ध्यानभेदों और गुणश्रेणीनिर्जरा के स्वामित्व का जो आगमसम्मत निरूपण किया है, वह संभव होता। इससे ज्ञात होता है कि वे गुणस्थान-सिद्धान्त से भली-भाँति परिचित थे। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार की प्रतिपादनशैली से गुणस्थान-सिद्धान्त के पूर्वभाव की पुष्टि होती है। यदि कोई कहे कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त गुणस्थानभेद स्वबुद्धि से कल्पित किये हैं और उनमें जिन परीषहादि भेदों का अस्तित्व बतलाया है, वह भी उनकी कल्पना की उपज है, तो यह युक्ति और प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, क्योंकि १. यदि अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत आदि जीव-अवस्थाओं को तत्त्वार्थसूत्रकार ने स्वबुद्धि से कल्पित किया होता, तो वे उनका सुव्यवस्थित (विधिपूर्वक) प्रतिपादन करते। अर्थात् ये क्या हैं, किसके भेद हैं, यह बतलाने के लिए सूत्रकार इन्हें गुणस्थान या जीवसमास आदि कोई नाम देते तथा इनके कुल कितने भेद हैं, यह स्पष्ट करने के लिए एक सूत्र में इन सब का नामोल्लेख करते तथा ये भेद किस आधार पर किये गये हैं, यह भी स्पष्ट करते। क्योंकि ऐसा करने पर ही उनके नवीन सिद्धान्त को पाठक हृदयंगम करने में समर्थ हो पाते। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे सिद्ध है कि गुणस्थानों के तत्त्वार्थसूत्र-निर्दिष्ट भेद सूत्रकार द्वारा कल्पित नहीं हैं, अपितु आगमोक्त हैं। आगम (कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि पूर्वाचार्यकृत ग्रन्थों) में गुणस्थानों का विधिपूर्वक प्रतिपादन होने से तत्त्वार्थकर्ता ने अपने ग्रन्थ में उसकी पुनरावृत्ति आवश्यक नहीं समझी। २. यदि गुणस्थान तत्त्वार्थकर्ता द्वारा कल्पित होते, तो आगमसिद्ध न होने के कारण समकालीन आचार्य उन्हें मान्यता प्रदान न करते, किन्तु किसी ने भी उनका विरोध नहीं किया। इससे सिद्ध है कि वे आगमोक्त ही हैं, तत्त्वार्थकर्ता द्वारा कल्पित नहीं। ___३. अनेक प्रमाण इस बात की गवाही देते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रंथों के आधार पर की गई है ( देखिए 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक अध्याय)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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