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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४०१ जैसे वृक्ष के अस्तित्व के बिना फल का अस्तित्व नहीं हो सकता, वैसे ही गुणस्थान-सिद्धान्त के अस्तित्व के बिना गुणस्थान के विभिन्न भेदों का अस्तित्व संभव नहीं है। जैसे लेश्या की अवधारणा के बिना कृष्ण, नील, कापोत आदि लेश्याभेदवाचक नामों का प्रचलन असम्भव है, वैसे ही गुणस्थान की अवधारणा के बिना अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानभेद-वाचक संज्ञाओं का प्रचलन असंभव है। यतः इन गुणस्थानभेद-वाचक संज्ञाओं का बहुशः प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र में हुआ है, अतः गुणस्थान की अवधारणा तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकसित हुई है, यह मान्यता अयुक्तियुक्त और प्रत्यक्ष प्रमाण-विरुद्ध है। २.११. प्रतिपादनशैली से गुणस्थानसिद्धान्त के पूर्वभाव की पुष्टि
२.११.१. गुणस्थान-विवरण के बिना गुणस्थानाश्रित निरूपण-उपरिदर्शित पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग द्वारा अर्थद्योतन की शैली पर ध्यान देने से हम पाते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणस्थानाश्रित निरूपण को संक्षिप्त बनाने के लिए दो उपायों का अवलम्बन किया है। उनमें पहला है गुणस्थान-सम्बन्धी विवरण प्रस्तुत किये बिना गुणस्थानानुसार ध्यान-परीषहादि का प्रतिपादन। उन्होंने न तो किसी सूत्र में गुणस्थान का लक्षण बतलाया है, न चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश किया है, न ही अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों की व्याख्या की है और न ही इन्हें 'गुणस्थान' नाम से सम्बोधित किया है। वे सीधे गुणस्थान-विशेष का नाम लेते हुए यह बतलाते चले गये हैं कि किस गुणस्थान में कौन-कौन से परीषह होते हैं, किस गुणस्थान में कौन सा ध्यान संभव है, किस गुणस्थान में किस कर्मप्रकृति का बन्ध हो सकता है और किन गुणस्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। इससे सूचित होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार भलीभाँति जानते थे कि जिनागम में गुणस्थान-सिद्धान्त सुप्रसिद्ध है और अनेक पूर्वग्रन्थों में उसका विस्तार से निरूपण है, अतः श्रुताराधक टीकाकारों
और उपदेशकों को 'तत्त्वार्थ' के सूत्रों की टीका-व्याख्या करना दुरूह नहीं होगा। पूर्वाचार्यकृत ग्रन्थों के द्वारा वे मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत आदि जीवावस्थाओं की गुणस्थानात्मकता, उनकी उत्पत्तिविषयक सम्पूर्ण कारणव्यवस्था, उनकी उदय-उपशमक्षयोपशम-क्षयात्मकता, उनकी मिथ्यात्व-सम्यक्त्व, अविरति-विरति, प्रमाद-अप्रमाद, कषाय-अकषाय, योग-अयोगमयता, उनकी आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष एवं ध्यानपरीषहादि-सम्बन्धी योग्यता तथा उन अवस्थाओं की चतुर्दशविध तरतमता सरलतया समझ जायेंगे। इसी विचार से सूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र में इन सबकी प्ररूपणा नहीं की।
___ यदि गुणस्थान-सिद्धान्त पूर्वप्रसिद्ध न होता, तो तत्त्वार्थसूत्रकार ने जो उसका परिचय दिये बिना, केवल गुणस्थानों का नामोल्लेख करते हुए , परीषहादि के स्वामित्व का
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