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________________ ४०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ गुणस्थान-विकासवादी विद्वान् के तर्क से ऐसे अनेक विपरीत अर्थ फलित होते हैं, अतः उनका तर्क समीचीन नहीं है। 'तत्त्वार्थ' में तो अनेक सूत्रों के द्वारा चौदह गुणस्थानों तथा उनकी कारणकार्य-व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया गया है, यदि यह भी न हुआ होता, तो भी यह सिद्ध नहीं होता कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक गुणस्थान की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी, ठीक वैसे ही जैसे उसमें मुनियों के २८ या २७ मूलगुणों, 'आर्यिका' शब्द और उनके आचार तथा पञ्चपरमेष्ठी के नामों का उल्लेख न होने पर यह सिद्ध नहीं होता कि इनकी अवधारणाओं का विकास तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक नहीं हुआ था, क्योंकि इनका पूर्वभाव आगमप्रमाण से सिद्ध है। ___ तत्त्वार्थसूत्र में चौदह गुणस्थानों का एक साथ निर्देश करना आवश्यक नहीं था, क्योंकि पूर्वरचित ग्रन्थों में यह अनेकत्र किया गया है। सूत्रग्रन्थों का उद्देश्य सांकेतिक भाषा में विषयवस्तु का संक्षेप में प्रतिपादन करना होता है। अत: जिस विषय या सिद्धान्त की परिभाषा (व्याख्या) पूर्वरचित ग्रन्थों में हो चुकती है, या भेदों का निरूपण किया जा चुकता है, उसकी पुनरावृत्ति सूत्रग्रन्थ में नहीं की जाती, जब तक वह अनिवार्य न हो। उससे सम्बन्धित केवल पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त औपशमिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण, अवग्रह, ईहा, अवाय, नय, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, एवंभूत, समभिरूढ, सम्मूर्छन, उपयोग, दर्शन, लेश्या, कषाय, मूर्छा, अनन्तानुबन्धी, संज्वलन, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, श्रावक, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, बादरसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशमक, क्षपक, परीषह आदि ऐसे ही पारिभाषिक शब्द हैं। इनमें से किसी की भी परिभाषा ( व्याख्या ) तत्त्वार्थसूत्र में नहीं की गयी है और केवल इन पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग द्वारा बन्ध और मोक्ष की सम्पूर्ण कारण-कार्य-व्यवस्था प्रतिपादित कर दी गयी। इससे सिद्ध होता है कि इन पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएँ या इनका सैद्धान्तिक स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र से पहले रचे गये ग्रन्थों में स्पष्ट किया जा चुका है, उनमें वह बहुचर्चित है। यदि ऐसा न होता, तो तत्त्वार्थसूत्र में इन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग उन्हें परिभाषित किये बिना संभव न होता, क्योंकि उस स्थिति में इनसे अभिप्रेत या जिनागमसम्मत अर्थ ग्रहण करना असम्भव होता। अतः तत्त्वार्थसूत्र में चौदह गुणस्थानों का एक साथ निर्देश एवं व्याख्या किये बिना जो सम्यग्दृष्टि, अविरत, देशविरत आदि गुणस्थानविशेष-वाचक शब्दों का उल्लेख करते हुए ध्यानादिभेदों का स्वामित्व वर्णित किया गया है, उससे सिद्ध है कि गुणस्थानसिद्धान्त तत्त्वार्थसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थों में बहुचर्चित रहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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