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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३९९ तात्पर्य है कि उमास्वाति ने किसी स्वतन्त्रसूत्र में चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करते हुए यह नहीं कहा कि ये गुणस्थान हैं। केवल इसलिए मान्य विद्वान् ने यह निष्कर्ष निकाला है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था। किन्तु ऐसे अनेक सिद्धान्त हैं, जो आगम में बहुचर्चित हैं, फिर भी तत्त्वार्थसूत्र में उनका स्वतन्त्ररूप से उल्लेख नहीं हुआ। जैसे षड्लेश्यासिद्धान्त का प्रतिपादन प्राचीन ग्रन्थ 'स्थानांग' (१/५१) और 'प्रज्ञापना' (१७/१ लेश्याधिकार ) में हुआ है, तथापि तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा कोई स्वतन्त्रसूत्र नहीं है, जिसमें छहों लेश्याओं के नाम वर्णित कर यह कहा गया हो कि ये लेश्याएँ हैं। केवल 'आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः (त.सू.-दि.४ /२), 'तृतीयः पीतलेश्यः' (त. सू.-श्वे. ४ / २), 'पीतान्तलेश्याः ' (त. सू. श्वे.-४/७) और 'पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु' (त. सू.-दि. ४ / २२, श्वे. ४/ २३), इन सूत्रों के द्वारा देवों के प्रसंग में मात्र तीन लेश्याओं का नामतः उल्लेख हुआ है। और 'पीतान्त' शब्द से आदि की तीन लेश्याओं का द्योतन मात्र किया गया है। अतः किसी स्वतन्त्र सूत्र में षड् लेश्याओं का नामनिर्देश करते हुए उन्हें 'लेश्या' शब्द से अभिहित न किये जाने से क्या यह मान लिया जाय कि तत्त्वार्थसूत्रकार के समय तक षड्लेश्याओं की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी? इसी प्रकार सप्तभंगी के सात भंगों का निरूपण पंचम आगम भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति)१६२ में हुआ है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में उसका नाम तक नहीं है। तो क्या यह समझ लिया जाय कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक सप्तभंगी की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था? तत्त्वार्थसूत्र में मुनियों के दिगम्बरमतानुसार २८ मूलगुणों का और श्वेताम्बर-आगम 'स्थानांग' (२७ / १७८) के अनुसार २७ मूलगुणों का वर्णन नहीं है, तो क्या यह निर्णय कर लिया जाय कि ईसा की चौथी शताब्दी अर्थात् श्वेताम्बरमान्यतानुसार तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक जैनधर्म में मुनियों के २८ या २७ मूलगुणों की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी? तत्त्वार्थसूत्र में 'आर्यिका' शब्द का उल्लेख नहीं है, न ही आर्यिकाओं के लिए किसी आचारमार्ग का निर्देश है, तो क्या यह मान लिया जाय कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक स्त्रियों के दीक्षित होने की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था? इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में णमोकारमन्त्र का पाठ नहीं है, न ही पञ्चपरमेष्ठी के नामों का उल्लेख है, तो क्या यह स्वीकार कर लिया जाय कि ईसा की चौथी शताब्दी तक जैनधर्म में पञ्चपरमेष्ठी की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी? १६२."गोयमा, चउप्पएसिए खंधे सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वं-आया ति य नो आया तिय, सिय आया य नो आया य, सिय आया य अवत्तव्वं, सिय नो आया य अवत्तव्वं, सिय आया य नो आया य अवत्तव्वं।" व्याख्याप्रज्ञप्ति १२/१०/३०(१)/ पृष्ठ २३५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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