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३९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ इन सूत्रों में १.अविरत, २. देशविरत, ३. प्रमत्तसंयत, ४.अप्रमत्तसंयत, ५. बादरसाम्पराय, ६.सूक्ष्मसाम्पराय, ७. उपशान्तकषाय, ८.क्षीणकषाय और ९. केवली, इन नौ गुणस्थानों का शब्दतः निर्देश किया गया है। इनमें 'अविरत' शब्द से मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि, ये चार गुणस्थान द्योतित किये गये हैं। 'त्र्येकयोग-काययोगायोगानाम्' सूत्र में 'अयोगानाम्' पद अयोगकेवलिगुणस्थान का प्रतिपादक है तथा 'एकादश जिने' सूत्र में 'जिन' शब्द सयोगिजिन और अयोगिजिन दोनों का वाचक है। गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में पठित 'उपशमक' और 'क्षपक' शब्द उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी के आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानों का प्रतिपादन करते हैं। इस प्रकार शब्दतः या अर्थतः समस्त चौदह गुणस्थानों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में किया गया है। अतः यह कथन सत्य का महान् अपलाप है कि तत्त्वार्थसूत्र में चौदह गुणस्थानों का निर्देश नहीं है, फलस्वरूप उसमें गुणस्थान-अवधारणा का पूर्णतः अभाव है। इसलिए यह मान्यता भी महामिथ्या है कि गुणस्थानसिद्धान्त का विकास तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद हुआ है। निष्कर्षतः यह मन्तव्य भी सर्वथा असत्य है कि गुणश्रेणिनिर्जरा के दस स्थानों से गुणस्थानसिद्धान्त विकसित हुआ है।
तत्त्वार्थसूत्रकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि ज्ञानावरणकर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं, दर्शनमोह और अन्तराय के उदय में अदर्शन और अलाभ परीषह होते हैं, चारित्रमोहोदय के कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना
और सत्कार-पुरस्कार परीषह होते हैं और वेदनीयकर्म के उदय से क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श एवं मल परीषह होते हैं। (त.सू./ ९ /१३-१६)। यतः दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में दर्शनमोह एवं चारित्रमोह का उदयाभाव होता है, अतः उनमें तज्जन्य आठ परीषह नहीं होते, किन्तु ज्ञानावरण, अन्तराय और वेदनीय का उदय होता है इसलिए तन्निमित्तक चौदह परीषह हो सकते हैं। 'जिन' में केवल वेदनीय का उदय होता है, शेष का नहीं, अतः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों में ग्यारह परीषह ही संभव हैं। किन्तु छठे से नौवें तक परीषहोत्पादक सभी कर्मों का उदय होता है, अतः उनमें सभी परीषहों की संभावना बतलायी गयी है। इस स्पष्टीकरण से स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को गुणस्थान-विषयक सर्वाङ्गीण ज्ञान था। २.१०. चौदह का एक साथ निर्देश अनावश्यक था ___गुणस्थान-विकासवादी विद्वान् ने अपने पूर्वोद्धृत वक्तव्य में कहा है कि "उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में चौदह गुणस्थानों का स्पष्टरूप से कहीं भी निर्देश नहीं किया, इससे सिद्ध होता है कि उनके समय तक गुणस्थान की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी।" (देखिए, इसी प्रकरण की शीर्षक १)। सम्भवतः मान्य विद्वान् के कथन का यह
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