SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३९७ "सूक्ष्मसाम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश' (त.सू.-दि.९/१०, श्वे.९/१०)। यहाँ सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें और वीतरागछद्मस्थ नामक ग्यारहवें एवं बारहवें गुणस्थानों में चौदह परीषहों की सम्भावना बतलायी गयी है। ११वें और १२वें गुणस्थानों के नाम क्रमशः उपशान्तमोह और क्षीणमोह हैं, जिनका निर्देश तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र (९ / ४५) में किया है तथा श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र के 'उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' (९ / ३८) सूत्र में किया गया है। - 'एकादश जिने' (९/११) सूत्र में 'जिन' शब्द से सयोगकेवली और अयोगकेवली नामक १३वें और १४ वें गुणस्थान सूचित किये गये हैं और उनमें क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल, इन ग्यारह परीषहों की संभावना व्यक्त की गई है, क्योंकि इनके कारणभूत वेदनीयकर्म की सत्ता उक्त दोनों गुणस्थानों में होती है। पं० सुखलाल जी संघवी लिखते हैं-"तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों में केवल ग्यारह ही परीषह संभव हैं। --- शेष ग्यारह घातिकर्मजन्य होते हैं और इन गुणस्थानों में घातिकर्मों का अभाव होने से वे संभव नहीं हैं।" (त.सू/ वि.स./९ / ११ / पृ.२१६)। श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनगणी ने भी 'जिन' शब्द को अन्त्य (१४वें) और उपान्त्य (१३ वें) गुणस्थानों का सूचक बतलाया है-"तत्रान्त्योपान्त्ययोर्गुणस्थानयोर्जिनत्वम् ---।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / ९/११)। 'बादरसाम्पराये सर्वे' (त.सू.-दि. ९/१२, श्वे. ९/१२) इस सूत्र के द्वारा छठे से लेकर नौवें गुणस्थान तक सभी बाईस परीषह संभव बतलाये गये हैं। (देखिये, अगला शीर्षक २.११.२)। - 'सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम्' (त.सू.-दि. ९ / १८, श्वे. ९ / १८) इस सूत्र में दसवें गुणस्थान के आधारभूत सूक्ष्मसाम्परायचारित्र का एवं ग्यारहवें-बारहवें, गुणस्थानों के आधारभूत यथाख्यातचारित्र का कथन किया गया है। 'शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव' (त. सू.-दि.२/४९) इस सूत्र के द्वारा प्रमत्तसंयतगुणस्थानवी जीव को आहारक-शरीर का स्वामी बतलाया गया है। 'सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य' (त.सू.-दि.६/२०, श्वे. ६/२०) यह सूत्र पाँचवें और छठे गुणस्थानों में देवायु के आस्रव का प्रतिपादक है। 'त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम्' (त. सू.-दि. ९/४०, श्वे.९/४२) यहाँ अयोग शब्द के द्वारा अयोगिकेवलि-गुणस्थान में व्युपरतक्रियानिवर्ति-ध्यान की पात्रता बतलायी गयी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy