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________________ ३९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०५ "धर्मध्यान के स्वामियों (अधिकारियों) के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में मतैक्य नहीं है। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार उक्त दो सूत्रों में निर्दिष्ट सातवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में तथा इस कथन से सूचित आठवें आदि बीच के तीन गुणस्थानों में अर्थात् सातवें से बारहवें तक के छह गुणस्थानों में धर्मध्यान सम्भव है। दिगम्बरपरम्परा में चौथे से सातवें तक के चार गुणस्थानों में ही धर्मध्यान की सम्भावना मान्य है। उसका तर्क यह है कि श्रेणी के आरम्भ के पूर्व तक ही सम्यग्दृष्टि में धर्मध्यान सम्भव है और श्रेणी का आरम्भ आठवें गुणस्थान से होने के कारण आठवें आदि में यह ध्यान किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है।" (त.सू./ वि.स./ ९/३७-३८/ पृ.२२७)। दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में धर्मध्यानसम्बन्धी सूत्र इस रूप में मिलता है'आज्ञापाय-विपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्' (९/३६) और पूज्यपादस्वामी ने 'धर्म्य ध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम्। तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति' (स.सि.९ / ३६) इस वचन द्वारा असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थानों को ही धर्मध्यान का अधिकारी बतलाया है। 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' (त.सू.-दि.९/३७, श्वे. ९/३९), तथा 'परे केवलिनः' (त. सू.-दि. ९ / ३८, श्वे. ९/४०) ये दोनों सूत्र दिगम्बरमतानुसार ८ वें से लेकर १४वें तक सात गुणस्थानों में और श्वेताम्बरमतानुसार ११वें से लेकर १४वें तक चार गुणस्थानों में जीव को क्रमशः चार प्रकार के शुक्लध्यानों का अधिकारी प्ररूपित करने के लिए रचे गये हैं। इन सूत्रों का अर्थ करते हुए पं० सुखलाल जी संघवी लिखते हैं-"उपशान्तमोह और क्षीणमोह में पहले के दो शुक्लध्यान पूर्वधर को होते हैं। --- शेष दो भेदों के स्वामी केवली अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवाले ही हैं।" (त.सू./ वि.स/९/३९-४० / पृ.२२७-२२८)। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में दिगम्बरमतानुसार पहले से लेकर छठे गुणस्थान तक आर्तध्यान, पाँचवें गुणस्थान तक रौद्रध्यान, चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक धर्मध्यान और आठवें से लेकर चौदहवें तक शुक्लध्यान का प्ररूपण किया गया है। तथा श्वेताम्बारमतानुसार पहले से छठे तक आर्तध्यान, पाँचवें तक रौद्रध्यान, सातवें से बारहवें तक धर्मध्यान और ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक शुक्लध्यान का स्वामित्व बतलाया गया है। इस तरह तत्त्वार्थसूत्र में चौदह गुणस्थानों का उल्लेख स्पष्टरूप से मिलता है। निम्नलिखित सूत्रों में बाईस परीषहों की यथायोग्य पात्रता बतलाने के लिए नौ गुणस्थानों का निर्देश किया गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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